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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 होती चली आ रही है। हालांकि, प्राकृतोत्तर काल में हिन्दी एवं तत्सहवत्तिनी विभिन्न आधुनिक भाषाओं और उपभाषाओं का युग आरम्भ हो जाने से संस्कृत तथा प्राकृत में ग्रन्थ-रचना की परिपाटी स्वभावतः मन्दप्रवाह परिलक्षित होती है। किन्तु, संस्कृत और प्राकृत में रचना की परम्परा अद्यावधि अविकृत और अक्षुण्ण है। और, यह प्रकट तथ्य है कि संस्कृत और प्राकृत दोनों एक दूसरे के अस्तित्व को संकेतित करती हैं। इसलिए, दोनों में अविनाभावी सम्बन्ध की स्पष्ट सूचना मिलती है ।
प्राकृत-साहित्य : भारतोय विचारधारा का प्रतिनिधि :
प्राकृत-साहित्य पिछले ढाई हजार वर्षों की भारतीय विचारधारा का संवहन करता है। इसमें न केवल उच्चतर साहित्य और संस्कृति का इतिहास सुरक्षित है, अपितु मगध से पश्चिमोत्तर भारत (दरद-प्रदेश) एवं हिमालय से श्रीलंका (सिंहलद्वीप) तक के विशाल भू-पृष्ठ पर फैली तत्कालीन लोकभाषा का भास्वर रूप भी संरक्षित है। प्राकृत-साहित्य का बहुलांश यद्यपि जैन कवियों और लेखको द्वारा रचा गया है, तथापि इसमें तयुगीन जन-जीवन का जैसा व्यापक एवं प्राणवान् प्रतिबिम्बन हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। न केवल भारतीय पुरातत्त्वेतिहास एवं भाषा विज्ञान, अपितु समस्त संस्कृत-वाङ्मय का अध्ययन एवं मूल्यांकन तबतक शेष ही माना जायगा, जबतक प्राकृत-साहित्य में सन्निहित ऐतिहासिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिच्छवियों का देश और काल के आधार पर अनुशीलन नहीं किया जायगा। सहज जन-जीवन और सरल जनभाषाओं की विभिन्न विच्छित्तिपूर्ण झलकियों के अतिरिक्त इस साहित्य में भारतीय दर्शन, आचार, नीति और धर्म की सुदृढ एवं पूर्ण विकसित परम्परा के दर्शन होते हैं। इतना ही नहीं, अगर दूं ढ़िये, तो, इसमें जटिल-ग्रन्थिल आध्यात्मिक और भौतिक समस्याओं के सुखावह समाधान भी मिल जायेंगे।
प्राकृत में संस्कृत के समानान्तर अध्ययन के तत्त्व :
प्राकृत-साहित्य में साहित्य की विभिन्न विधाएँ-जैसे काव्य, कथा, नाटक, चरितकाव्य, चम्पूकाव्य, दूतकाव्य, छन्द, अलंकार, वार्ता, आख्यान, दृष्टान्त, उदाहरण, संवाद, सुभाषित, प्रश्नोत्तर, समस्यापूत्ति, प्रहेलिका प्रभृत्ति-पायी जाती हैं। इस साहित्य में प्राप्त कर्म सिद्धान्त, खण्डन-मण्डन, विविध सम्प्रदाय और मान्यताएं आदि हजारों वर्षों का इतिहास अपने में उपसंहृत किये हुए हैं। जन-जीवन की विभिन्न धारणाएँ, जीवन-मरण, रहन-सहन, आचार-विचार आदि के सम्बन्ध में अनेक-पुरातन बातों की जानकारी के लिए प्राकृतसाहित्य का तुलनात्मक अध्ययन अनिवार्य है। आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म-साहित्य का अध्ययन वैदिक उपनिषदों के अध्ययन में पर्याप्त सहायक होगा। कुन्दकुन्दाचार्य के प्रसिद्धतर ग्रन्थ 'समयसार' के अध्ययन के विना अध्यात्म और वेदान्तशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन अपूर्ण ही माना जायगा। कहना तो यह चाहिए कि भारतीय चिन्तन का सर्वांगपूर्ण ज्ञान, जो संस्कृत-वाङ्मय में निहित है, प्राकृत-साहित्य के ज्ञान के विना
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