Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 सीधे तौर पर, दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य का एक निश्चित अर्थ सीमित है। इनमें दर्शन और ज्ञान आत्मा के गुण माने गये हैं। ये दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र्य के साथ रखे जाते हैं, तभी वस्तुतः इन्हें रत्नत्रय की उपाधि से विभूषित किया जाता है। इनमें दर्शन-ज्ञान-चारित्र्य को जैन धर्म में एक दूसरे से पृथक् नहीं रक्खा जा सकता। ये तीनों एक साथ मिल कर ही जैन धर्म की कड़ी की तीन गांठे बनते हैं। जैन साधु के लिए ज्ञानपूर्वक क्रिया करने का पद-पद पर विधान है। आत्मा में लगे दोषों की निर्जरा ज्ञानयुक्त की गयी क्रिया से ही समझी गयी है। आचारांग के प्रारंभ में ही टीका में सुस्पष्ट व्यक्त किया गया है कि जिस कर्म-मल को अज्ञानी करोड़ों वर्षों में दूर करता है, उसे काय, मन और वाणी से गुप्त ज्ञानी एक दीर्घ उच्छवास मात्र में नष्ट कर डालता है।
जैन धर्म के अंग
__प्रत्येक धर्म के दो अंग होते हैं -विचारात्मक और आचारात्मक । जैन धर्म के विचारों का मूल है स्याद्वाद (अनेकान्तवाद) और आचार का मूल है अहिंसा। किसी के विचारों की उपेक्षा अवहेलना न की जाय और न किसी प्राणी के जीवन को अपने जीवन से किचिन्मात्र भी कम आंका जाय-ये जैन धर्म के विचारात्मक और आचारात्मक अंग के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। अन्य धर्मों में उक्त विचारात्मक एवं आचारात्मक अंगों पर जोर दिया तो अवश्य गया है, पर इन दोनों अंगों की मान्यता पृथक-पृथक् दी गयी है। किंतु, जैन धर्म में ऐसी बात नहीं है । इसमें विचारात्मक एवं आचारात्मक, ये धर्म के दोनों अंग, एक दूसरे से अभिन्न हैं। इनका अविनाभावी सम्बन्ध है। जब तक साधक इन दोनों अंगों पर एक साथ ध्यान देता हुआ साधना के पथ पर अग्रसर नहीं होता, तब तक उसकी साधना अपूर्ण रहती है।
जैन साधु-आचार और श्रावकाचार
धर्म मानव की एक व्यापक भावना का प्रतीक है, जिसके माननेवाले विश्व के कई . भागों में कई नामों से विभाजित हैं। मानव समुदाय जब एक निश्चित धार्मिक भावना से
अनुप्राणित हो अपने को उस में सुस्थिर कर लेता है, तब उस मानव-समूह को किसी एक धार्मिक नाम से अभिव्यक्त किया जाता है ।
यद्यपि मानव हृदय में धार्मिक भावना का प्रवाह अनादि काल से अनवरत प्रवाहित होता आया है, किन्तु समय-समय पर, पृथ्वी पर महापुरुषों का अवतरण होता रहता है, जो अवतार, महापुरुष एवं तीथंकर आदि नामों से कहे जाते हैं और वे मानवों को प्रचलित धार्मिक भावना के समुद्र से कुछ रत्न निकालकर प्रदान करते हैं और उन महापुरुषों के नाम से खास धर्म की अभिव्यक्ति होती है, क्योंकि वे ही उस भावना को प्रकृत मूर्तरूप देते हैं। अत: वे ही धर्मचक्र के प्रवर्तक समझे जाते हैं। इसी सिद्धान्त पर आधारित पृथक्
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