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. जैन धर्म में अहिंसा और ब्रह्मचर्य
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पृथक् धर्म-संघ बनते गये हैं। इस वर्ग या धर्म में साधु तथा गृहस्थ दोनों ही रहते हैं । अतः उस धर्म में साधु तथा गृहस्थों के धार्मिक विचार तथा आचार में प्रायः कोई विशेष भिन्नता देखी नहीं जाती। कुछ नाम मात्र का भेष-भूषा सम्बन्धी अन्तर जो दिखाई देता है, वह प्रधान नहीं, गौण ही रहता है। पर, यह बात जैन धर्म में एकदम नहीं है। जैन धर्म में साधु के आचार और गृहस्थ के आचार में बहुत बड़ा अन्तर है। अन्तर का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि दोनों के आचार परस्पर-विरोधी हैं। ऐसी बात नहीं है। साधु और गृहस्थ के कुछ नियमों में जो प्रारम्भिक या सरल कहे जा सकते हैं, समानता है । किन्तु जहाँ से साधु के नियमों की विवेचना का प्रारम्भ होता है, वहाँ से यदि गृहस्थ के आचारों का समीक्षण करें तो ऐसा लगेगा कि दोनों (साधु और गृहस्थ) के आचारों में समन्वय की मात्रा जो भी अत्यल्प है वह नगण्य है, एवं साध के आचारों की व्यापकता एवं गांभीर्य को देखते हुए-वह समुद्र में विन्दु के समान है । अतः जैन धर्म की विवेचना में साधु के आचार पर दृष्टि डालना बहुत ही आवश्यक है। यहाँ साधु के आचार के प्रसंग में धर्म की बड़ी विशद, गंभीर और सूक्ष्म व्याख्या की गयी है। धर्म के मर्म को, जो अहिंसा के मौलिक सिद्धान्त पर टिका हुआ है, बारीकी से अभिव्यक्त किया गया है। बाह्य आचार को आन्तरिक भावना का द्योतक समझाते हुए युक्तिपूर्वक द्रव्य-प्रधान एवं भाव-प्रधान विशेषताओं के दृष्टिकोण बताये गये हैं, धर्म के सारांश को आचार द्वारा व्यक्त ही नहीं किया गया है, बल्कि आचार को धर्म का पालनीय आवश्यक कर्तव्य कहा गया है। साधु के जीवन का सार, आगमों का सार, धर्म का सार आदि आदि विशेषणों से आचार की महत्ता का गुणगान किया गया है।
प्रारम्भ में साधु आचार के पांच महाव्रत (और छठा रात्रि-भोजन-निषेध) बताये गये हैं, उन्हीं के ऊपर आचारांग में प्रकाश डाला गया है। ये व्यापक हैं और इनका अन्तर्भाव प्रधानतया अहिंसा में हो जाता है। अहिंसा जैनधर्भ की आधारशिला है । अहिंसा को लक्ष्य मानकर--उसे ध्येय समझते हुए-सभी महाव्रत साधु के लिए, जैन धर्म में आचरणीय समझे गये हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्रि-भोजननिषेध में छ: महाव्रत बताये गये हैं। इन छः महाव्रतों में शेष ईर्या, भाषा आदि अन्य सभी आचारों का समावेश हो जाता है। उक्त छः महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को जैनधर्म में प्रधान रूप से बहुत महत्त्व दिया गया है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि अहिंसा के ध्येय की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य बहुत आवश्यक साधन है। ब्रह्मचर्य के अभाव में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह एवं रात्रि-भोजन-निषेध आदि महाव्रतों का पालन साधु के लिए कठिन ही नहीं, असंभव हो जाता है। अतः अन्य नियमों में परिस्थितिवश कुछ अपवाद भी कर दिये गये हैं। किन्तु ब्रह्मचर्य-पालन में किचिन्मात्र भी अपवाद का स्थान, जैन साधु आचार में नहीं दिया गया है। इसका कारण यह बताया गया है कि मैथुन भाव का संचार मानव शरीर में रागादि दोषों के बिना नहीं होता ।' इन रागादि दोषों को निर्विवादरूप से सारे पापकर्म
१. आचारांग टीका २।५।२८८ ।
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