Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन धर्म में अहिंसा और ब्रह्मचर्य जगदीश नारायण शर्मा, एम० ए०, पी-एच० डी०, आयुर्वेदाचार्य __ जैन धर्म के अतिरिक्त यावतीय पृथ्वी के धर्मों में अहिंसा और ब्रह्मचर्य के पालन पर यथासाध्य बल दिया गया है। यद्यपि इन दोनों का बड़ा व्यापक तौर पर विवेचन हुआ है, किन्तु, इनकी आध्यात्मिक गरिमा को कभी किसी ने चुनौती नहीं दी। किन्तु, जहाँ तक जैन धर्म की सीमा का प्रश्न है, इसमें अहिंसा एवं ब्रह्मचर्य परस्पर सापेक्ष माने गये हैं। इनकी विवेचना "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र्याणि मोक्षमार्गः" के आधार-स्तम्भ जैन दर्शन सिद्धान्त पर आरोपित हुई है । सम्यग्दर्शन अर्थात् तत्त्व पदार्थों का सम्पक श्रद्धान धर्म मार्ग में चलने की पहली सीढ़ी है। सम्यक् श्रद्धा होने पर साधक का ज्ञान सम्यग् ज्ञान कहलाने लगता है। सम्यग् ज्ञान होने पर मोक्ष प्राप्ति के अनुरूप आचार ही सम्यक् चारित्र्य है । ज्ञान परा कोटि का होने पर भी यदि वैसा आचार न हो, तो किसी भी काल में वह व्यक्ति मोक्ष नहीं पा सकता। अतएव केवलज्ञान प्राप्त होने पर भी यथाख्यात चारित्र्य के अभाव में (१३) तेरहवें गुण-स्थान में सिद्धि नहीं बतायी गयी। बिना क्रिया, ज्ञान केवल भारस्वरूप है और अज्ञानी की क्रिया जड़वत् है। इस पर से हम देख सकते हैं कि इन त्रिरत्नों में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों का महत्त्व होने पर भी अन्ततः मोक्ष-प्राप्ति में चारित्र्य का महत्त्व ही सबसे अधिक है। अतः ज्ञान और क्रिया का संयोग ही निर्विवाद सफलता का आधार समझा गया है ।'
जैन साधु-आचारों में १-अहिंसा महाव्रत, २-सत्य महाव्रत, ३-अचौर्य महाव्रत, ४-ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५-अपरिग्रह महाव्रत और ६-रात्रिभोजन-निषेध महाव्रत आदि मुख्य हैं । इन व्रतों का पालन जैन साधु बड़ी कड़ाई के साथ करते हैं। जिस तरह वृक्ष की प्रधान जड़ में छोटी-छोटी जड़ की शाखा प्रशाखाएँ निकल कर एक दूसरे अंगभूत हो सटी रहती हैं, जिस भाँति, मेरुदंड में शरीर के सारे स्नायु-जाल चेतना को प्रसारित करते हुए परस्पर अविच्छिन्न रहते हैं, उसी भाँति उक्त महाव्रतों का जागरूकता के साथ सतत् अनुशीलन व पालन, मोक्ष-प्राप्ति के उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधु के जीवन में समझा गया है। जैन धर्म के रत्नत्रय
। पूर्व रत्नत्रय नाम से जो अभिव्यक्ति की गयी है, उसका जैन धर्म में विशिष्ट स्थान है। जैन धर्म में दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य-इन तीन को रत्नत्रय नाम से कहा गया है। इनके पहले सम्यक् शब्द जोड़ दिये जाने से रत्नत्रय के अर्थ की व्याख्या ठीक हो जाती है।
१. संयोजसिद्धिए फलं वदन्ति । - आचारांग टीका, उपधान श्रुत उद्देशक ४.
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