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आचार्य विद्यानन्द का एक विशिष्ट चिन्तन भावनावाद और उसका निरास :-कुमारिल भट्ट वेद-वाक्य का अर्थ भावना मानते हैं। उनका कहना है कि यथार्थ में श्रुतिवाक्य का अर्थ भावना ही प्रतीत होता है। जब श्रुतिवाक्य बोला जाता है, तब श्रोता याज्ञिक अनुभव करता है कि इस वाक्य ने यश करने की मेरी भावना को जाग्रत किया है। अतः भावना को ही श्रुतिवाक्य का अर्थ मानना चाहिए, नियोग और विधि को श्रुतिवाक्य का अर्थ मानना ठोक नहीं है। यह भावना दो प्रकार की है :
(१) शब्द-भावना। (२) अर्थ-भावना।
"शब्दात्मभावना'3 इत्यादि कारिका के द्वारा स्पष्टतया भावना के दो भेद बतलाकर उसे लिंगादि द्वारा प्रतिपादित कहा गया है, क्योंकि शब्द के द्वारा पुरुष का व्यापार जाग्रत होता है और पुरुष के व्यापार के द्वारा धात्वार्थ अर्थात् शब्द व्यापार और धात्वार्थ के द्वारा स्वर्गादि फल की अवगति की जाती है। यहाँ यह प्रश्न नहीं उठाया जा सकता कि पुरुष के व्यापार को उत्पन्न करने के कारण शब्द व्यापार को ही और शब्द व्यापार को उत्पन्न करने के कारण पुरुष व्यापार को श्रमशः शब्द-भावना और अर्थ-भावना माना जाता है। इसी प्रकार पल को भी उत्पन्न करने के कारण धात्वार्थ को भी भावना मानना चाहिए, क्योंकि धात्वार्थ शब्द व्यापार से भिन्न भावना माना ही गया है ।
ध्यान रहे श्रुतिवाक्य के बोले जाने पर श्रोतागण ऐसा समझते हैं कि हमें यज्ञ करने के लिए नियुक्त किया गया है।
भावनावाद की समीक्षा :-यह भावना भी श्रुतिवाक्य का अर्थ नहीं प्रतीत होता" है। आचार्य विद्यानन्द कहते हैं कि इस भावनावाद में भी पूर्वोक्त प्रमाण आदि विकल्प उठाये जा सकते हैं। जैसे कि वे नियोग और विधि के वाक्यार्थ मानने पर उठाये गये हैं। सच तो यह है कि वक्ता जब कुछ बोलते हैं, तो उन्हें बाह्य अर्थ की प्रतीत होती है । श्रोत वाक्यों से भले ही श्रोता को यह प्रतीत हो कि उसकी भावना जाग्रत हुई है, परन्तु
.........."सर्वत्र भावनाया एव वाक्यार्थत्व प्रतीतः । २. साहि द्विधा, शब्दभावनार्थभावना च । वही । ३. शब्दात्म भावना माहुरन्यामेव लिंगादयः ।
इयंत्वन्यव सर्वार्था सर्वाख्यातेषु विद्यते । अष्ट सहस्री, पृ० १९ । वही। अष्टसहस्री में पृ. १४-३० तक भावनावादी का प्रभाकर बौद्ध दार्शनिकों के बीच भावना के स्वरूप के विषय में शास्त्रार्थ उपलब्ध है। इति च प्रतिक्षिप्तश्चैवंविधो निधिवादो नियोग वादिनैवेति नास्माकमन्नतितरामादरः।
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