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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 कि एक लिच्छवि के रुग्ण होने पर सभी उसकी सुश्रूषा में तत्पर रहते थे। ध्यक्तिगत, पारिवारिक उत्सवों में प्रायः अधिकांश लिच्छवि सम्मिलित होते थे तथा विशिष्ट अतिथियों का स्वागत वे एकजुट होकर करते थे। वे प्रियदर्शी थे तथा रंगीन एवं आकर्षक पोशाक के शौकीन थे । उनका यह शौक केवल पोशाक तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उनके वाहन भी उच्च कोटि के हुआ करते थे। इससे उनके समृद्ध होने का संकेत मिलता है। नारियों की पवित्रता पर लिच्छवि लोग अत्यन्त बल देते थे। उनकी दृष्टि में नारियों का भ्रष्ट होना एक गम्भीर आपत्ति मानी जाती थी। पति के निवेदन पर उनकी सभा भ्रष्ट पत्नी को प्राणदण्ड भी दे सकती थी।
लिच्छवियों की शासन-पद्धति प्रशंसनीय थी । यह एक गणराज्य था, जिसके सभी प्रधान राजा कहलाते थे। राजाओं के अधीनस्थ पदाधिकारियों में उपराजा, सेनापति, भण्डागारिक आदि उल्लेखनीय हैं ।४ सम्पूर्ण गणतत्र अथवा किसी एक व्यक्ति को भी प्रभावित करनेवाले विवाद का निर्णय लिच्छवियों की सभा में विमर्शोपरान्त किया जाता था। डंके की चोट से सभा की घोषणा की जाती थी, जिसे सुनते ही वे व्यक्तिगत कार्यों को त्याग संथागार में एकत्र हो जाते थे।५ सीहसेनापति के प्रसंग से ऐसा लगता है कि इन सभाओं में धर्म-विषयक विवादों पर भी विमर्श होता था।
लिच्छवियों की न्यायपालिका की अपनी विशेषता थी। इसका सबसे निम्नपदाधिकारी विनिच्छयमहामत्त एवं सर्वोपरि पदाधिकारी राजा होता था। किसी भी दोषी व्यक्ति के दोष की प्रारम्भिक जाँच करना विनिच्छयमहामत्त का कार्य था। फिर वोहारिक (विधि-विशेषज्ञ) एवं सुत्तधर (परम्परा-विशेषज्ञ) के मन्तव्य के उपरान्त इसकी जाँच अट्ठकुलक (न्याय-विशेषज्ञ-समिति) करता था। इस प्रकार क्रमशः सेनापति एवं उपराजा की जाँच के उपरान्त अन्तिम निर्णय के लिए इसे राजा को सौंप दिया जाता था, जो पवेणिपोत्थक (परम्परागत-विधि-ग्रन्थ) के अनुसार दण्ड की घोषणा करता था। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सेनापति के ऊपर केवल राज्य की सुरक्षा का ही भार नहीं था, बल्कि वह न्याय-पालिका से भी सम्बद्ध था। लिच्छवियों की इस शासन-पद्धति की छाप बौद्ध भिक्षुसंघ के संघकम्म यथा उपसम्पदा तथा उब्बाहिका आदि की विधि में स्पष्ट देखी जा सकती है।
१. दी. नि० अ०, भाग-२, पृ० ५२९ । २. वही, पृ० ९६। ३. पाचित्तिय, पृ० ३०१ ।
जातक, भाग-३,१।। ५. दी० नि० अ०, भाग-२, पृ० २१७ ।
महावग्ग, पृ० २४८ । ७. दी० नि० अ०, भाग-२, पृ० २१८-१९ ।
महावग्ग, पृ० ५३ ।। लेखक की पुस्तक--स्टडीज इन बुद्धिस्ट ऐंड जैन मोनैकिज्म, पृ० २२१; चुल्लवग्ग, पृ० १८२।
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