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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 नियोग सत रूप है या असतादिरूप :-इसके अतिरिक्त नियोग के विषय में वार प्रश्न और उठते हैं कि क्या नियोग सत रूप है या असत् रूप या उभय रूप या अनुभय रूप? .. प्रथम पक्ष में विधिवाद अर्थात् ब्रह्मवाद का प्रसंग आता है । क्योंकि, वेदान्ती सम्पूर्ण जगत् को सत् रूप मानते हैं। नियोग को असत् रूप मानने पर निरालंबनवाद स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि शून्याद्वैत मत में सम्पूर्ण जगत असत् रूप माना गया है। उसी प्रकार नियोग को सत् असत् उभय रूप मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में उभय पक्ष में दिये गये दोषों की सम्भावना उपस्थित होती है। नियोग को अनुभय रूप मानने पर व्याघात अर्थात् विरोध नाम का दोष आता है। क्योंकि सत और असत् दोनों का एक साथ निषेध नहीं हो सकता है। एक का निषेध करने से दूसरे का विधान होने का प्रसंग होगा। समन्तभद्राचार्य ने भी यही कहा है। यदि सर्वथा सत् और सर्वथा असत् का प्रतिषेध करके कथंचित सत् और कथंचित् असत् रूप नियोग को माना जाय, तो प्रभाकर के सामने स्याद्वात्रियों के मत को स्वीकार करने का प्रसंग आता है । ।... इसके अतिरिक्त नियोग के विषय में निम्नांकित प्रश्न भी उठते हैं :
नियोग प्रवर्तक स्वभाव या अप्रवर्तक स्वभाव ? आचार्य कहते हैं कि नियोग प्रवर्तक स्वभाव है या अप्रवर्तक स्वभाव । यदि प्रवर्तक स्वभाव है तो प्रभाकरों की तरह बौद्धों की भी उक्त श्रुति-वाक्यों को सुनकर यज्ञादि के करने में प्रवृत्ति होनी चाहिए, क्योंकि उसका स्वभाव प्रवृत्ति कराने का है। परन्तु उनकी प्रवृत्ति यज्ञादि करने में नहीं होती है। प्रभाकर-मतवादी यह नहीं कह सकता है कि बौद्धों का मत प्रमाण से बाधित होने से वे विपर्याप्त बुद्धिवाले होते हैं। इसलिए यज्ञ करने में उनकी प्रवृत्ति नहीं होती है। क्योंकि प्रभाकर का मत भी प्रत्यक्षादि प्रमाणों से वाधित है। प्रत्यक्ष से नियुक्ता (यज्ञ कर्ता), नियोग (वेद) वाक्य और उसका विषय (यज्ञादि) क्षणिकवाद की तरह प्रत्यक्ष से बाधित होने से नियोगवाद सिद्धान्त ठीक नहीं है।
अब यदि प्रभाकर मतानुसारी नियोग को अप्रवर्तक स्वभाव रूप माने तो बौद्धों की भांति प्रभाकरों को भी उक्त वेद-वाक्यों को सुनकर यज्ञ करने में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। क्योंकि, वेदवाक्य अप्रवर्तक स्वभाववाला माना गया है। इससे स्पष्ट है कि नियोग श्रुतिवाक्य का अर्थ नहीं है। १. अष्टसहस्री पृ० ८ । (ख) तत्वार्थ श्लोकवार्तिक, प्रथम अध्याय, सूत्र-३२,
पृ० २६२ । २. आप्त मीमांसा, परिच्छेद १, कारिका १७-१९ ।
किञ्च नियोगः सकलोपि प्रवर्तक स्वभावो वा स्यादप्रवर्तक स्वभावो वा ? (क) अष्टसहस्री, पृ० ८-९ । (ख) त० श्लो० वा०, पृ० २६४ । तुलना के लिए द्रष्टव्य, न्यायकुमुद चन्द्र, पृ० ५८७ ।
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