Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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आचार्य विद्यानन्द का एक विशिष्ट चिन्तन
41 नियोग प्रमाण-प्रमेय उभय रूप नहीं है :-यदि नियोग को प्रमाण और प्रमेय दोनों रूप स्वीकार किया जाय तो इस पक्ष में भी ब्रह्मवाद स्वीकार करने का दोष आता है। क्योंकि, वेदान्तियों ने भी ब्रह्म को प्रमाण और प्रमेय दोनों रूप स्वीकार किया है।
इसी प्रकार नियोग को अनुभय रूप भी नहीं कहा जा सकता है। इस मान्यता में भी ब्रह्म को स्वीकार करने का प्रसंग उपस्थित होता है, क्योंकि वेदान्तियों ने भी ब्रह्म को प्रमाण-प्रमेय दोनों से रहित केवल सत्ता रूप माना है।
नियोग व्यापार रूप नहीं है :-नियोग को शब्द व्यापार रूप और पुरुष व्यापार रूप मानने पर भाट्टों के मत को मानने का प्रसंग आता है। क्योंकि, भाट्ट मीमांसकों ने शब्द व्यापार को शब्द भावना रूप और पुरुष व्यापार को अर्थ भावना रूप स्वीकार किया है। दोनों रूप नियोग को स्वीकार करने में भी पूर्ववत दोष आते हैं। यदि नियोग को दोनों के व्यापार रूप नहीं मानते हों तो प्रश्न उठता है कि वह विषय स्वभाव है या फलस्वभाव है या निःस्वभाव है ? यदि उसे विषय कहा जाय तो 'अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः' इत्यादि वाक्य का प्रतिपाद्य यागादि ही विषय होगा और वह वाक्य के उच्चारण के समय विद्यमान है या अविद्यमान है ? यदि विद्यमान है तो नियोग वाक्य का अर्थ नहीं हो सकता। क्योंकि, वाक्य यागादि के निष्पादन के लिए बोला जाता है और यागादि पहले से निष्पन्न है। यदि उसे अविद्यमान कहा जाय तो नियोग भी अविद्यमान होगा अं
और उस हालत में अविद्यमान स्वभाव स्वरूप नियोग श्रुति-वाक्य का अर्थ कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार आकाश के फूल को श्रुतिवाक्य का अर्थ नहीं माना जा सकता है, उसी प्रकार अविद्यमान स्वभाव रूप नियोग श्रुतिवाक्य का अर्थ नहीं हो सकता।
___ उपर्युक्त दोष से बचने के लिए यदि प्रभाकर कहें कि हम नियोग को फल स्वभाव मानते हैं और फल का अर्थ स्वर्गादि है तो भावनावादी भाट्ट कहते हैं कि प्रभाकरों का यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि बल स्वयं नियोग नहीं है । स्पष्ट है कि स्वर्गादि रूप फल नियोग नहीं माना जा सकता, अन्यथा फलान्तरं मानना पड़ेगा । वास्तव में नियोग फल के लिए किया जाता है, स्वयं फल नहीं है ।
अब यदि इस तीसरे विकल्प को माना जाय कि नियोग निःस्वभाव है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में बौद्धों के निरालम्बनवाद को स्वीकार करना पड़ेगा।
प्रभाचन्द्राचार्य ने भी इन विकल्पों का अनुसरण किया है । १. अ० स०, पृ० ८ । तुलना के लिए द्रष्टव्य न्याय कुमुदचन्द्र, भाग-२, पृ० ५८६ ।
.................."सोपि विषय स्वभावो वा स्यात् फलस्वभावो वा स्यान्निस्स्वभावो वा ? गत्यन्तराभाषात् । (क) अ० स०, पृ० ८ । (ख) तत्वार्थ श्लोक वार्तिक, अ० १, सूत्र ३२,
पृ० २६२ । ३. न्यायकुमुद चन्द्र, भाग २, पृ० ५८६-५८७ ।
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