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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 छान्दस से प्राकृत विकास
डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने डॉ० जगदीशचन्द्र जैन के विचारों को व्यवस्थित करते हुए प्राचीन आर्यभाषा 'छान्दस' से प्राकृत का विकास माना है और फिर अपने मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि प्राकृत का विकास प्राचीन आर्यभाषा, यानी तत्कालीन जनभाषा 'छान्दस' से हुआ है और लौकिक संस्कृत या संस्कृत-भाषा भी 'छान्दस' से विकसित है। अतः, विकास की दृष्टि से प्राकृत और संस्कृत दोनों सहोदरा भाषाएँ हैं । दोनों एक ही स्रोत से समुद्भूत हैं।
इस प्रकार, उपर्युक्त समग्र विवेचन से तीन धारणाएँ स्थिर होती हैं : १. प्राकृत संस्कृत से उद्भूत है। २. प्राकृत मूल भाषा है और उसीसे संस्कृत विकसित हुई है। ३. प्राकृत और संस्कृत दो स्वतन्त्र भाषाएँ हैं और दोनों का विकास-स्रोत वैदिक 'छान्दस भाषा है । तीसरी धारणा के अनुसार, डॉ० शास्त्री ने प्राकृत के दो मूल भेद माने हैं : कथ्य और साहित्य-निबद्ध । कथ्यभाषा प्रथमस्तरीय प्राकृत है, जो प्राचीन समय में जनबोली के रूप में प्रचलित थी और जिसका साहित्य आज उपलब्ध नहीं। किन्तु, उसके मूलरूप की झलक 'छान्दस' साहित्य में मिलती है। और, द्वितीयस्तरीय प्राकृत तीन युगों में विभक्त है-प्रथम- युग, मध्ययुग और उत्तर अर्वाचीन युग या अपभ्रश-युग। डॉ. शास्त्री ने प्रथम युग (ई० पू० छठी शती से ईसवी की द्वितीय शती तक) की प्राकृतों में शिलालेख-निबद्ध प्राकृत, प्राकृत-धम्मपद की प्राकृत, आर्ष पालि, प्राचीन जैनसूत्रों की प्राकृत और अश्वघोष के नाटकों की प्राकृतों की परिगणना की है। मध्ययुगीन (सन् २०० से ६०० ई. तक) प्राकृतों में भास और कालिदास के नाटकों की प्राकृत, गीतिकाव्यों और महाकाव्यों की प्राकृत, परवर्ती जैनकाव्य-साहित्य की प्राकृत, प्राकृत-वैयाकरणों द्वारा निरूपित और अनुशासित प्राकृतें एवं 'बृहत्कथा' की पैशाची प्राकृत को परिगणित किया है और उत्तर अर्वाचीन युग या अपभ्रश-युग (सन् ६०० से १२०० ई० तक) में विभिन्न प्रदेशों की प्राकृतों की परिगणनीय माना है । प्राकृत और संस्कृत का सहविकास :
इस तरह, प्राकृत की स्थिति ई० पू० छठी शती से ईसवी की १२ वीं शती तक संस्कृत के साथ-साथ समानभाव से पल्लवित-पुष्पित होती हुई परिलक्षित होती है। और, तब यह अस्पष्ट नहीं रह जाता कि प्राकृत स्वतन्त्र रूप से विकसित होनेवाली एक ऐसी जनोपयोगी भाषा रही है, जिसका साहित्य पर्याप्त मौलिक और समृद्ध रहा है। यही कारण है कि महाकवि राजशेखर जैसे संस्कृत सिद्ध पण्डितों ने भी प्राकृत की भाषिक और साहित्य समृद्धि से प्रभावित होकर प्राकृत का 'यत्परो नास्ति' अनुशंसन किया और इसी भाषा में 'कर्पूरमंजरी' जैसे महत्त्वपूर्ण सट्टक की रचना की। साथ ही, प्राकृत के अनेक अधीतियों १. प्राकृत-भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, प्र० तारा पब्लिकेशन्स,
वाराणसी, पृ० ९, १३ तथा १६ ।। २. प्राकृत साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, वही, पृ० १७ ।
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