Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 4
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत और संस्कृत का समानान्तर भाषिक विकास
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के आशय को स्पष्ट करते हुए उक्त महाकाव्य के सम्पादक-टीकाकार ने कहा है कि 'प्रकृति ही प्राकृत शब्दब्रह्म है और उसी के विकार या विवर्त्त संस्कृत आदि भाषाएँ हैं ।"
भारतीयेतर पण्डितों में डॉ० अल्फ्रेड सी० वलनर तथा डॉ. रिचर्ड पिशेल ने भी मूलभाषा प्राकृत को ही मानने का सतर्क आग्रह प्रदर्शित किया है । डॉ० वुलनर अपने 'इण्ट्रोडक्शन टू प्राकृत'२ नामक ग्रन्थ में प्राकृत का विकास संस्कृत से न मानकर दोनों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि संस्कृत शिष्ट समाज की भाषा रही और प्राकृत जनसाधारण के बीच बोली जाती थी। डॉ० पिशेल ने अपनी पुस्तक 'प्राकृत-भाषाओं का व्याकरण'3 में मूल प्राकृत को ही जनभाषा माना है और यह बताया है कि साहित्यिक प्राकृतें संस्कृत के समान ही सुगठित हैं।
अर्वाचीन भारतीय विद्वानों में डॉ० प्रबोध बेचरदास पण्डित, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, डॉ० हीरालाल जैन, डॉ० ए० एन० उपाध्ये, डॉ० भोलाशंकर व्यास, डॉ० हरदेव बाहरी, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री आदि ने प्राकृत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में बहु-कोणीय विचार किये हैं और कुल मिलाकर सबने प्राकृत को प्रत्यक्ष रूप से संस्कृतोद्भूत मानने की अपेक्षा संस्कृतावृत या संस्कृताधृत या संस्कृत का शाखाभेद माना है । डॉ० प्रबोध बेचरदास पण्डित संस्कृत के बाह्य रूप के भीतर प्राकृत को प्रवाहित देखते हैं और ऐसे संस्कृत-रूपों के ग्रन्थों में 'महाभारत' को प्रमुखतया प्रस्तुत करते हैं। डॉ० पिशेल से प्रभावित डॉ० जगदीशचन्द्र जैन को भी संस्कृत से प्राकृत को उद्भूत मानना स्वीकार नहीं है। उनका वहना है कि 'वैदिक आर्यों की सामान्य बोलचाल, जो ऋग्वेद की संहिताओं की साहित्यिक भाषा से जुदा है, प्राकृत का मूल रूप है ।' डॉ० हरदेव बाहरी ने भी प्राकृतों से संस्कृत का विकास माना है और अपने तर्क में कहा है कि 'प्राकृतों से वेद की साहित्यिक भाषा का विकास हुआ, प्राकृतों से संस्कृत का विकास भी हुआ और प्राकृतों से इनके अपने साहित्यिक रूप भी विकसित हुए।' १. 'अथवा प्रकृतिरेव प्राकृतं शब्दब्रह्म । तस्य विकारा विवर्ता वा संस्कृतादय
इति मन्यते स्म कविः ।'-गउडवहो, कवि प्रशंसा, श्लो० सं० ९३ की टीका,
भं० ओ० रि० ई०, पूना-संस्क०, सन् १९२७ ई० । २. प्र. पंजाब-विश्वविद्यालय, लाहौर, वि० सं० सन् १९२८ ई०, पृ० ३४ । ३. अनु० डॉ० हेमचन्द्र जोशी, प्र. बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना-४,
पृ० १४ । ४. प्राकृत-भाषा, प्र० श्रीपार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, सन् १९५४ ई०,
पृ १६ । ५. प्राकृत-साहित्य का इतिहास, प्र० चोखम्बा-संस्कृत-विद्याभवन, वाराणसी,
पृ० ५। ६. प्राकृत-भाषा और उनका साहित्य, प्र० राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्र० सं०,
पृ० १३ ।
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