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Vaishali İnstitute Research Bulletin No. 3 निग्गंठनातपुत्त (महावीर) को संघी, गणी और गणाचार्य के रूप में सम्मानित किया गया है। जैन परंपरा में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जब विनीता नगरी में सिंहासन पर आरूढ़ हुए तो उन्होंने उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय नामक चार गणों की स्थापना की। महावीर को केवल ज्ञान होने के पश्चात् उनका उपदेश सुनकर जो उनके प्रमुख शिष्य बने, वे गणधर कहलाये। प्राचीन जैन ग्रंथों में संघ, गण, गच्छ, कुल और शाखा का उल्लेख किया गया है। कल्पसूत्र की स्थविरावलि में जैन श्रमणों के गोदासगण, उत्तरबलिस्सहगण, उहगण, चारणगण, उड्डुवा डियगण, बेलवाडियगण, माणवगण और कोडियगण के नाम आते हैं। कुलों में नागभूय, वच्छलिज्ज, पीइधम्मिय, भद्दज सिय, इंदपुरग, इत्तिगुत्ति, पण्हवाहणय आदि, तथा शाखाओं में तामलित्तिया, मासपुरिया, संकासीआ, वज्जनागरी, चपिज्जिया, काकंदिया, सावत्थिया, सोराठ्या, उच्चानागरी, मज्झिमिल्ला (मध्यमा), बंभदीविया आदि के नामों का उल्लेख है। ईसा की १४वीं शताब्दी के लेखक राजशेखर ने अपने प्रबन्ध कोशकी-प्रशस्ति में अपने आपको कोटिक (कोडिय) गण, प्रश्नवाहनक पण्हवाहणय) कुल, मध्यमा शाखा, हर्षपुरीय गच्छ में मलधारी की सन्तान कहा है ।
उत्तर-कालीन जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में क्षीण होता हुआ वैशाली का महत्त्व
लगभग ईसापूर्व ५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में अजातशत्रु ने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए वैशाली के वज्जी-लिच्छतियों की गणव्यवस्था को तहस-नहस कर डाला। लेकिन यह कहना कठिन है कि उसी समय से वैशाली अपना गौरव खोकर श्रीविहीन हो गयी। हाँ, इतना अवश्य है कि सैकड़ों वर्षों तक हमें लिच्छवियों का नाम सुनाई नहीं पड़ता। बुद्ध-निर्वाण के लगभग १००० वर्ष बाद ईसवी सन् ३२० के लगभग हमें लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी का नाम सुन पड़ता है, जिसका विवाह प्रथम गुप्त सम्राट् के साथ हुआ। सातवीं शताब्दी में जब चीनीयात्री श्य्वेनच्वांग वैशाली आया तो वह शोभाविहीन हो चुकी थी। आगे चलकर बौद्ध अट्ठकथाकार अश्वघोष (ईसवी सन् ५वीं शताब्दो) जैसे दिग्गज विद्वान् तथा शीलांक (ईसवी सन् ९वीं शताब्दी) और अभयदेव (ईसवी सन् ११ वीं शताब्दी) जैसे सुप्रसिद्ध जैन टीकाकार वज्जी, लिच्छवी, वैशालीय, (वैशाली निवासी महावीर के श्रावक), काश्यप (महावीर का गोत्र नाम) जैसे शब्दों की सार्थकता ही भूल गये। मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा के अनुसार, जो भी खाद्यपदार्थ लिच्छवियों के पेट में जाता, वह आरपार दिखाई देता, जैसे कोई वस्तु किसी मणिपात्र में रक्खी हुई हो । अतएव वे लोग निच्छवी (लिच्छवी = पारदर्शक) कहे जाने लगे। शीलांक ने सूत्रकृतांग की टीका (२, १, पृ. २७७ अ) में लिच्छवी का अर्थ लिप्सावाले वणिक् किया है। सूत्रकृतांग की चूर्णी (पृ. ३१५) तथा सुप्रसिद्ध पाइअसहमहण्णवो (संशोधित द्वितीय संस्करण) में भी इसी अर्थ को मान्य किया है। वज्जी शब्द की परंपरा भी विस्मृत हो चुको थी । बौद्ध टीकाकार अश्वघोष और अभयदेव आदि जैन विद्वानों ने इसकी विचित्र व्युत्पत्तियाँ की हैं। अभयदेव ने वज्जी का अर्थ वज्री (इन्द्र) किया है (व्याख्या प्रज्ञति , ७।९)। आचार्य हेमचन्द्र ने इस अर्थ को मान्य किया है । अज्ञातशत्रु-कणिक को बौद्ध
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