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व्यापार से दूर रहते थे। उदाहरणार्थ सूत्रकृतांग कहता है कि 'प्राणि मात्र की अनुकंपा करने के लिए इप्टा, ज्ञातृपुत्रगण, सब पापमय प्रवृत्तियों से दूर रहते हैं। इसी भय से वे खास उसके लिए बनाया हुआ भोजन भी स्वीकार नहीं करते हैं । जीवित प्राणियों को पीड़ा पहुंचने के डर से वे दुष्ट कामों से दूर रहते हैं, किसी जीव को दुख या पीड़ा नहीं करते हैं, इसीलिए वे ऐसा पाहार भी नहीं करते हैं। हमारे धर्म के साधुनों यही का प्राचार है।'
उवासगदसानो से हम यह जानते हैं कि ज्ञानिकों का अपनी राजधानी कोल्लाग की बाहर द्विपलास नाम का चैत्य था।' डा. हरनोली चैत्य शब्द का अर्थ 'जैन मन्दिर अथवा पवित्र स्थान ' करते हैं, परन्तु सामान्यतया इससे वह समस्त बड़ा ही समझा जाता है कि जिसमें उद्यान, वनसंड या वनखण्ड, मन्दिर और उसके पुजारी की कुटि ग्रादि सब होते हैं।'' जब हम यह जानते हैं कि शिष्यों सहित महावीर के कुण्डपुर या वैशाली में समय समय पर प्रागमन के समय ठहरने को स्थान रखना पार्श्वनाथ के अनुयायी होने से ज्ञातृकों को प्रावश्यक था तो चैत्य का उपयुक्त व्यापक अर्थ एकदम समीचीन ही लगता है। और इस अर्थ के समीचीन होने का इससे भी समर्थन हो जाता है कि दीक्षित होने के पश्चात् महावीर अपनी जन्मभूमि में जब भी ग्राए, उनने इसी चैत्य में निवास किया था।
ज्ञातृकों और उनके कुल वि. रीट महावीर प्ररूपित धर्म के प्रति उनके बहुमान के विषय में इतना ही कहना पर्याप्त होगा । फिर भी हम यह बता देना चाहते हैं.' डा. लाहा कहता है कि, 'वे महावीर ही थे जिनने ज्ञातृकों का पूर्वी-भारत की पड़ोसी जातियों से निकटतम संसर्ग कराया था और ऐसे धर्म का विकास किया था कि जो आज भी लाखों भारतीय मानते पालते हैं । इसी ज्ञातृक जाति का दूसरा नर-रत्न आनन्द था जो कि महावीर का एक निष्ठ अनुयायी था । जैन गसूत्र उवासगदसायों में कहा गया है कि उसके पास चार करोड़ मौनयों की निधी थी। फिर यह भी कहा गया है कि वह ऐसा महान् था कि अनेक राजा. महाराजा और उनके अधिकारी से लेकर व्यापारी तक भी उससे अनक बातों की सलाह किया और लिया करते थे । उसके शिवनन्दा नाम की पतिव्रता भार्या थी।
अव वज्जियों का हम विचार करें। हम देखते हैं कि लिच्छवियों और वज्जियों के बीच में भेद करना अत्यन्त ही कठिन है । वे भी 'वैशाली के साथ जो कि लिच्छवियों को राजधानी में ही नहीं थी, अपितु समस्त धनपद की महानगरी भी थी, बहन सम्पर्क में थे। डा. लाहा के अनुसार लिच्छवी और अधिक व्यापक अर्थ में कहें तो वज्जि दृढ़ धार्मिक भावना और गहरी भक्ति से प्रेरित मालूम होते हैं। मगध देश और वज्जि भूमि में
1. लाहा, बि. च., वही. पृ. 1 22 । 2. याकोबी, वही, पृ. 416 । डा. याकोबी ने यहां टिप्पण दिया है कि ज्ञातृपुत्र शब्द यहां जैनों के लिए पर्यायवाची
रूप से प्रयुक्त हुया है । देखो वही । 3. देखा हरनोली, वही, भाग I, पृ. 2। 4. हरनोलो. वही, भाग 2, पृ. 2 टिप्पण + । 5. देखो वही, भाग ।, प. 6; भाग 2.प. 9। कल्पसत्र में हमें दुइपलास चेइय का नाम नहीं मिलता है यद्यपि
नायकूल के साण्डवन उद्यान का नाम वहां मिलता है। कल्पसूत्र, सूबोधिका टीका सुत्र |15, प. 95 । देखो योकोबी, सेबुई, पुस्त. 22. प. 257; हरनोली. वही, पृ. 4-5; श्रीमती स्टीवन्सन वही, पृ. 31 । 6. लाहा. बि. च., वही, पृ. 125 । देखो हरनोली, वही. पु. 7-9 । 7. रायचौधरी, वही, पृ. 74-75 ।
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