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पांचवां अध्याय
मथुरा के शिलालेख
खारवेल का हाथीगुफा का शिलालेख उत्तर-भारत के जैन इतिहास का जैसे पहला भूमिचिन्ह है, मथुरा के जैन शिलालेखों से वैसे ही उस इतिहास के दूसरे युग के भूमिचिन्ह प्रारम्भ होते है। इन दोनों के बीच का अर्थात् ई. पूर्व 150 से 16 तक का समय एकदम कोरा है ऐसा मान लेना आवश्यक नहीं है क्योंकि कलिंग के जैन राजा के पश्चात् उससे भी अधिक सुप्रसिद्ध उज्जयिनी का विक्रमादित्य हुआ था जिसको जैन अपनी सम्प्रदाय का रक्षक मानते हैं। वहां प्राप्त प्राचीन लेखों की साक्षी के संक्षेप में सर्वेक्षण करने के पश्चात् कलिंग और मालवा के अतिरिक्त मथुरा के जैनधर्म की एक बड़ी बस्ती हो गई थी इसका विचार करेंगे।
महावीर-निर्वाण समय की चर्चा करते हुए ई. पूर्व 57 या 56 में प्रारम्भ होनेवाले विक्रम संवत् का भी निर्देश किया जा चुका है। "विक्रमचरित' का जैन प्रतिसंस्करण कहता है कि जैन मुनि सिद्धसेन दिवाकर का उपदेश सुन कर, विक्रम ने अपनी प्रतिष्ठा वृद्धि के लिए सारी पृथ्वी को ऋणमुक्त किया, और (ऐसा करके) उसने वर्धमान के संवत् में परिवर्तन (जिससे परिवर्तन की सूचना हो) कर दिया। उसी से परवर्ती भारतवर्ष को अपना सर्व प्रथम अविचलित युग याने सम्वत् प्राप्त हुआ कि जो आज तक भी उत्तर-भारत का सामान्य युग या सम्बत् है । एड्गटन के शब्दों में 'मात्र जैनों का ही नहीं अपितु समस्त हिन्दुनों का अनेक सदियों से ऐसा विश्वास
रहा है ।
यह महान् अवन्तीपति जिसके कि गौरवमय दिनों की और अतिमानवीय गुणों की जैन एवम् ब्राह्मण दोनों ही साहित्यों में विस्तार से कीति गाई गयी है, अपने को विक्रमादित्य जिसका व्युत्पन्न अर्थ 'पराक्रम में सूर्य समान होता है, कहने लगा । उसके परवर्ती अनेक राजाओं को यह विरुद इतना अधिक आकर्षक हुआ कि अनेक ने, उस महान् वंश से कुछ भी सम्बन्ध न रखने पर भी, अपने नाम के साथ यह विरुद लगा लिया । इससे प्रतीत होता है कि प्रथम विक्रमादित्य अवश्य ही एक अति महान् राजा होना चाहिए क्योंकि ऐसा नहीं होता तो इस विरुद का इतना अधिक प्राकर्षण किसी को हो ही नहीं सकता था।
यह वही विक्रमादित्य है कि जिसे जैनों के कथा-साहित्य में जैन कहा गया है। उसके पूर्वज गर्दा मल्ल के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि महान् जैनाचार्य कालकसूरि ने, अपनी भगिनी साध्वी के उसके द्वारा अपहरण किए जाने से अपमानित हो कर, सिथियन राजों में से एक को अपने पक्ष में किया और उसकी सहायता से उनने
1. एडगर्टन, विक्रमाज एडवेंचर्स, भाग 1, प्रस्ता. पृ. 58 । देखो प्रबन्ध चिन्तामणि, पृ. 11 आदि; शतुजय महात्म्य,
सर्ग, 14, गाथा 103, पृ. 8081 2. एड्गर्टन, वही, प्रस्ता. पृ. 59।
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