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आवश्यकता नहीं है, हालांकि यह तो निश्चित प्रतीत होता हैं, किसी न किसी रूप में यह महावीर काल से तो जैनों में प्रचलित ही है
मूर्तिपूजा का प्रश्न हमारा विचारणीय नहीं है, परन्तु मूर्ति-शिल्प का अवश्य ही विषय हमारे लिए विचारगीय है। पूजा के मुख्य पदार्थ तो चौबीस तीर्थ कर ही हैं, परन्तु महायान बौद्धों की भांति ही, जैनों ने भी हिन्दू देवी-देवताओं का परितत्व स्वीकार कर लिया है, यही नहीं अपितु उन्हें सचना उनमें से ऐसों को अपने मूर्ति-शिल्प में स्वीकार कर लिया है कि जिनका सम्बन्ध उनके तीर्थंकरों की कथाओं के साथ है। ऐसे वे देव-देवी हैं. इन्द्र, गरुड़, सरस्वती, लक्ष्मी, गन्धवं पप्सरा यादि यादि इनका एक अपना ही देवसमाज है जिसके उनने पार विभाग माने हुए हैं, यथा भवनाधिपति, व्यंतर, ज्यौतिष्क और वैमानिक । जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है तीर्थकरों की पहचान उनके चिन्ह या लांछन द्वारा होती है कि जो उनकी मूर्ति के नीचे चिन्हित या अकित होता है। हमने यह भी देखा कि उड़ीसा की एक से अधिक गुफाएं नांदनवाली तीर्थकरों की मूर्तियों और कुछ उभरी ख़ुदी बैठी मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार की जैन तीर्थकरों की मूर्तियां मथुरा के अवशेषों में भी प्राप्त हैं। वे मूर्तियां एक वर्ग रूप से दिगम्बर शंसी की ही हैं।" इस प्रकार ऐतिहासिक रूप से भी चौबीस तीर्थकरों की चौबीसी की दृढ़ मान्यता प्रत्येक तीर्थंकर के अपने ही लांछन या चिन्ह सहित, न केवल ईसवी युगे के प्रारम्भ से अपितु उससे पूर्व से ही प्रचलित थी ।
तीर्थंकरों की मूर्तियाँ सामान्यतः बुद्ध की मूर्ति के समान ही पालगथी (पैर पर पैर रख कर बैठना ) लगा कर बैठे आकार में और शांत, ध्यानमग्न अवस्था में देखी जाती हैं। यदि उड़ीसा एवम् मथुरा दोनों ही मूर्ति-शिल्पों में नर्तकियों की आकृतियाँ विकास की द्योतक हैं तो योगी मुद्रा में बैठी जिन मूर्तियाँ उतनी ही विकास के प्रत्याहार और पूर्ण स्वातंत्र्य की हृदयग्राही मूर्तियाँ हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि यह देहदमन का प्रतीक नहीं है। यह तो भारतीय विचारकों द्वारा ध्यान के लिए स्वीकृत सब से सुगम अनादि कालीन मुद्रा है। इसे अभिव्यंजनाशून्य नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि वह वैयक्तिक विशिष्टता जिसे सामान्यतया श्रभिव्यंजना प्रदर्शक माना जाता है, नहीं बताती है। पक्षान्तर में रोथेनस्टीन के अनुसार, समाधि याने धार्मिक अन्यमनस्कता के नमनीय व्याख्या कला के इतिहास में एक सर्वोच्च कल्पना है और इसके लिए समस्त संसार भारत को मनोषि मस्तिष्क का ऋण है। ध्यानस्थ दशा का यह मूर्त स्फटिकीकरण, 'वह विद्वान कहता है कि,' श्राकार में इतना पूर्ण एवम् अनिवार्य विकसित हुआ कि 2000 वर्ष से अधिक होने पर भी वह मनुष्य निर्मित प्रतीकों में का प्रत्यन्त प्रेरक धौर सन्तोषकारक एक है।"
अब हम मथुरा के जैन ग्रवशेषों का विचार करें। यह नगर स्मरणातीत प्राचीन है । परन्तु जैनावशेष कटरा के प्राधा मील दक्षिण स्थित कंकाली नामक टीले से और उसके आसपास की खुदाई में प्राप्त हुए हैं । इसी को जैनी टीला भी कहा जाता है। भारतीय कला के इतिहास में इन अवशेषों का महत्व दो कारणों से है। पहला तो यह कि ये प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय कला की 'खला रूप है और दूसरा यह कि इनकी उस गंधार सम्प्रदाय से अत्यन्त हो घनिष्टता है कि जिसका उत्तर-पश्चिमी सीमा का संचार क्षेत्र केन्द्र था और वहीं
1. देखो कूलर, इण्डियन सेक्ट ग्राफ दी जैनाज, पू. 66 आदि ।
2. देखो बोम्बल कैटेलोग ग्राफ दी पाकियालोजिकल म्यूजियम एट मथुरा, पु. 41 विशेष विवरण मथुरा संग्रहालय की तीर्थंकरों की मूर्तियों के लिए देखो वही पु. 41-43, 66-821 3. रोथेनस्टीन, एक्जाम्पुल्स ग्राफ इण्डियन स्कल्पचर प्रस्तावना, पृ. 8 ।
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