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उनने इसी प्रकार अन्यत्र के कुछ कटहरों पर की स्त्री-पुतलियों की नग्नाकृतियाँ असम्य रूप में नग्न नही हैं ।। इस प्रकार के दृश्यों में ऐसा लगता है कि निकट का अथवा दृश्य विषय-तत्व ही मुख्य होता है कि जो वैयक्तिक पसंदगी या अपसंदगी को व्यक्त करता है और कला का अर्थ भी हमारे लिए उम निकट या दृश्य विषय से अधिक गहन नहीं रहता है।
जैसा भी है, शिवयशा के प्रायागपट और कुछ कटहरे के स्तम्भों पर की स्त्री प्राकृतियाँ, चाहे वे विकृत वामनों पर खड़ी हों, या किसी अन्य भंगिमा में हों, अच्छी या बुरी प्रवृत्तियों को उकसाना नहीं चाहिए क्योंकि सभी कला जिसका कुछ भी सचेतन अभिप्राय है, भाव प्रवण ही होता है । कला का यथार्थ नैतिक मूल्य उसकी अनासक्ति और दर्शनशनि के गुण में है। प्राचीन भारतीय कलाकार जिस प्रकाश में नारी का परिदर्शन करते थे, वह गम्भीर, अमायिक और उदार होता था। पैरों में भारी सांकले. याने लंगर, सूक्ष्म पतला वस्त्र, भारी कर्णफूल, बाजूबन्द, कण्ठहार, और मेखला सर्व-विजयी एवम् आकर्षक मग्नता गोपन नहीं अपितु इसकी शोभा में अभिवृद्धि करते हैं। इस काननचारी सौन्दर्य में अश्लीलता अथवा .ठी लज्जा की झिझक का लवलेश भी नहीं होता है। नीच अथवा संकुचित क्षेत्र में ही नहीं, अपितु उनकी प्रात्मा के महलों में भी मथुरा के कलाकारों ने जैसा कि सांची एवम् अन्यत्र के कलाकारों से किया है, नारि को स्मृति-मन्दिर में प्रतिष्ठित किया है । इसीलिए उनने उसकी मूर्ति को सर्व सौन्दर्य के अमर प्रतीक आकाश में ऊँची उठा कर, चिरस्थायी पाषाण में, जैसा कि उपर्युक्त था; छाप दिया है और आकाश की प्रास्मानी पृष्ठभूमि में खड़ा कर दिया है।
आमोहिनी द्वारा स्थापित समर्पण शिला के विषय में स्मिथ कहता है कि 'इस सुन्दर उत्सर्ग शिलामें, जो निश्चय हो पायागपट है, हालांकि उसे ऐसा कहा नहीं गया है। एक राजमहिनी तीन परिचारिका और एक बालक सहित दिखाई गई है। हिन्दू पुरातन प्रथानुसार परिचारिकाएं जो कि आज तक दक्षिण भारत में प्रचलित है, सिर से कमर तक नग्न हैं। एक अपनी स्वामिनी पर छत्र किए हुए है और दूसरी पंखे से उसे हवा कर रही है : तीसरी उसे अर्पण करने को हाथ में हार लिए खड़ी है। यह कलाकृति सुस्पष्ट है और कला-गुण से एकदम ही रहित नहीं है।
आयागपटों के अतिरिक्त हम यहाँ देव निर्मित बोद्ध स्तूप के शिल्प का भी विचार कर लें। इस कलाकृति के केन्द्र का पवित्र प्रतीक त्रिशूल पर टिका हा धर्मचक्र है। त्रिशूल कमल पर टिका हुआ है। धर्मचक्र जैन, हिन्दु
और बौद्ध तीनों ही धर्मों में धर्म-चिन्ह या प्रतीक रूप में प्रयोग होता है। जो चक्र-विशिष्ट इस कलाकृति में दिखाया गया है बौद्ध ही नहीं अपितु अन्य जैन शिष्यों से एक बात में विभिन्न है क्योंकि इसके शीर्ष पर कान के
1. कुमारास्वामी के अनुसार ये स्त्री प्राकृतियाँ नर्तिकानों की नहीं हैं, जो कि स्मिथ ने अनुमान किया है। उसकी
राय में वे यक्षों, देवता या वृक्ष का, अप्सराएँ और वन देवियाँ हैं और लोक-मान्यता या विश्वास के अनुसार सस्य उर्वरता के शुभ प्रतीक ही मानी जानी चाहिए। कुमारास्वामी, वही, पृ. 64 । देखो बोग्येल, प्रासइ, 1909-1910, पृ. 771 2. स्मिथ, वही, पृ. 21, प्लेट 14 । 3. ...यह आश्चर्य की ही बात होगी कि स्तूपों, पवित्र वृक्षों, धर्मचक्रों आदि की पूजा कि जिसके प्रायः स्पष्ट चिन्ह सभी धर्मों में और शिल्प की प्रतीकों में पाए जाते हैं, एक ही धर्म का कारण हो न कि सुदूर प्राचीन काल से भारतीय ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ के। उत्तराधिकार में प्राप्त सब धर्मों की प्रथा है। व्हूलर, वही, पृ. 323 1
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