Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 222
________________ [ 211 इस सम्प्रदाय की अनेक उत्कृष्ट कृतियाँ प्राप्त हुई हैं। “भौगोलिक दृष्टि से,' स्मिथ कहता है कि, "मथुरा उत्तर पश्चिम के गंधार, दक्षिण-पश्चिम की अमरावती और पूर्व के सारनाथ से केन्द्र स्थानीय है । इसलिए यह पाश्चर्य की बात नहीं है कि वहाँ की कला में ऐसे मिश्र लक्षण दीख पड़ें कि जो एक ओर तो उसको गंधार की यावनी कला से जोड़ देते हैं तो दूमरी ओर विशुद्ध अन्तर भारतीय कला सम्प्रदाय से ।"1 यह गंधार-मथुरा सम्प्रदाय सम्भवतः ई. पूर्व पहली सदी में उद्भुत हुई होगी और ई. 50 से 200 तक के काल में पूर्ण विकसित रूप में चमकी होगी । भारत की प्राचीन कला में यावनी नमूनों के स्वीकरण से इसका उद्भव हुमा कि जो शनैः शनैः उसकी ही प्रात्मा रूप हो गए। "गंधार सम्प्रदाय," डॉ. बान्यैट कहता है कि, "एक उपचित वाक्य है जो यह प्रकट करता है कि अनेक कलाकारों के विविध सामग्रियों में काम करती अनेक पीढ़ियों में विविध कला कौशल वाले परिश्रम का यह फल है। कभी कभी यावनी नमूनों का अन्धानुकरण भी किया गया था और इस चतुराई पूर्ण नकल में उन्हें सफलता शायद ही प्राप्त हुई है। सामान्य रूप से देखें तो उनने इससे भी अधिक किया था। म्लेच्छ कला की वस्त्रों, भावनाओं आदि का स्वीकार करते हुए उनने ग्रीक प्रभा और सुषुमा, सौंदर्य और सुसंगति, का भी प्रायात किया जिससे पुरानी कला की आकृतियाँ, कला की मानवीयता और सत्यता को निर्बल किए बिना, उच्च स्तर को उठ गई। भारतीय कला में इन विदेशी तत्वों का समावेश और भारतीय कला का विदेशियों द्वारा स्वीकरण दोनों ही बाहरी दुनिया के साथ भारतीय राजनैतिक एवम् व्यापारिक सम्बन्ध के आभारी हैं। यही कारण है कि आज का भौगोलिक भारत भिन्न-भिन्न जातियों का निवास स्थान है कि जिनका कला का प्रादर्श, धर्म का प्रादर्श एकसा बिलकुल ही नहीं हैं और जिनने, अधिकांश में परवर्ती ऐतिहासिक काल तक में परदेश से आए हुए होने से, सुशोभन कला के विदेशी तत्वों का प्रवेश किया, परन्तु जो उन परदेशियों की ही मांति, यहाँ के ही हो गए हैं यहाँ नहीं अपितु स्थानीय हरिद्वर्ण भी उनने प्राप्त कर लिया है। फिर भी एन्ड्यूज के अनुसार, जलवायु और अन्य कारणों से उन देशों से कि जो भारतीय सम्पर्क से विशेष प्रभावित हए थे, कला-विषयक कोई भी रोचक तथ्य प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं और इसीलिए 'कलापों का हमारा अधिकांश ज्ञान उन पदार्थों के प्रांम्यंतरिक साक्षियों से ही संग्रहित किया जा सकता है कि जो जलवायु एवं धर्मान्धता की विनाशक शक्तियों से आज तक बचे रह गए हैं । मथुरा सम्प्रदाय के विषय में सामान्य प्रस्ताविक विचार करने के बाद, अब हम वहाँ के जैन शिल्प के कुछ उदाहरणों का विचार करेंगे जो कि कंकाली टीला से प्राप्त हुए हैं। कला-देवी अपने भक्तों से जो निर्विवाद तन्मयता मांगती है, वह जैन कलाविदों ने कितने प्रमाण में साधी है और यवन तत्वों विशुद्धप्रात्मीकरण करने में वे कहाँ तक सफल हुए हैं, इसका भी हम विचार करेंगे। जिन कतिपय मथुरा शिल्प के नमूनों का हम यहां विचार करने वाले हैं उनमें पहले हम पायागपटों का विचार करें कि जो बहुत रोचक और सुन्दर कलाकृतियाँ हैं । 'प्रायागपट', डा. व्हूलर कहता है कि. 'एक शोभा 1. स्मिथ, हिस्ट्री आफ फाइन आर्ट इन इंडिया एण्ड सीलोन पृ. 233 । देखो, योग्बल, वही, पृ. 19 । 2. "इस सम्प्रदाय की कला की यह पराकाष्टा का काल ई. 50 से ई. 150 या 200 तक का कहा जा सकता है।" -स्मिथ, वही, पृ. 99 । 3. बान्वेंट, एण्टीक्विटीज ग्राफ इण्डिया, प. 253। 4. एण्ड्रज, वही, प्रस्तावना पू. 12 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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