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प्राक्-गंधार युग की भारतीय या जन कला में विदेशी तत्वों के प्रवेश की इस बात के सिवा भी, हमारी यह सम्मति है कि इस प्राचीन जैन शिल्प में विशिष्ट चारुता रही हुई है। भूषणों की प्रचुरता और कला की प्रवीणता के अतिरिक्त उसमें भवों की अद्भुत ताजगी और पुष्टि कारक आनन्द अज्ञातभाव वर्तमान है। ये उभरे भास्कर्य, मानव प्रवृत्तियों के अन्य दृश्यों में, याने आखेट, लड़ाई, नाच, मद्यपान और प्रेम-प्रदर्शन के दृश्य दिखाते हैं, और फरग्यूसन के अनुसार, इनमें "धर्म अथवा प्रार्थना के किसी भी रूप के दृश्यों के सिवा"। और सभी कुछ दिखाए गए हैं । स्वस्थ्य प्रजा की यह ऊष्मा सभी उत्तम बौद्ध एवं जैन कला की विशिष्टता है और गांधार सम्प्रदाय की आर्ष सीमा से वह अवश्य ही किसी अंश में दब गई कि जो बाद में सामने आई ।
उड़ीसा के जैन अवशेषों की विशेष चर्चा यहाँ नहीं की जा सकती है, फिर भी मथुरा के जैन अवशेषों का विचार करने के पूर्व कला विषयक जैन योगदान की दो विशिष्टताओं का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली विशिष्टता है स्तूप के रूप में अवशेष-पूजने की प्रथा और दूसरी जैनों में मूर्ति-पूजा । जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, हाथीगुफा शिलालेख की चौदहवीं पंक्ति से हमें पता लगता है कि मथुरा शिल्प-युग के बहुत पहले से ही बौद्धों की भांति जैनों में भी अपने गुरुत्रों के अवशेषों पर स्तुप या स्मारक खड़े करने की प्रथा प्रचार में थी । "प्राचीनतम स्तूप निःसन्देह किसी धार्मिक सम्प्रदाय के प्रतीक नहीं थे। वे अग्निदाह के स्थान में भूमि में दबा देने की प्रथा के साथ-साथ मृतों के स्मारक मात्र थे ।"३ हो सकता है इस प्रकार की पूजा बौद्धों की भांति जैनों में इतनी प्रचार नहीं पाई हो । परन्तु यह तो निश्चित है कि थोड़ी ही लोकप्रियता के पश्चात् वह अप्रचलित हो गई थी। परन्तु मथुरा के बौद्ध स्तूप से कि जो, जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं, देव निर्मित था, हम यह दृढ़ता से कह सकते हैं कि जैन में स्तूप-पूजा भी कभी एक निश्चित स्थिति को पहुंच गई थी।
ऐसा कहने का मुख्य आधार यह है कि स्तुप, मूलत:, किसी नेता या धर्माचार्य की मस्मि पर मिट्टी के ऊंचे ऊंचे ढ़ेर मात्र ही थे और उनकी रक्षा के लिए काष्ठ की बाड़ उनके चारों ओर लगा दी जाती थी। बाद में ये ही मिट्टी के प्रतरतम अंश सहित ईट या पाषाण के बनाए जाने लगे और काष्ठ-बाड़ भी पाषाण बाड़ में बदल गई। मथुरा के बौद्ध एवं अन्य स्तूपों के दिखाव पर से उनका प्रारम्भिक रूप प्रगट नहीं होता है. यह हम उनको देखते ही कह सकते हैं उनमें हम काष्ठ-बाड़ के स्थान में पाषाण की बाड़ पाते हैं और उनके बाह्य भाग को अत्यन्त सजाया हुआ भी देखते हैं।
दूसरी बात जिसका कि हमें विचार करना है, वह है जैनों का मूर्तिशिल्प । हाथीगुफा शिलालेख से हम जानते हैं कि जैनों में अपने तीर्थकरों की मूर्तियाँ नन्दों के काल में भी बनती थी। इसका किसी अंश में समर्थन मथुरा के अवशेषों से भी होता है । जिनसे हम जानते हैं कि इण्डो-सिथिक काल के जैनों ने किसी प्राचीन मन्दिर के सामान का उपयोग मूर्तिशिल्प में किया था। स्मिथ के अनुसार यह इतना तो अवश्य ही प्रमाणित करता है कि मथुरा में ई. पूर्व 150 के पहले जैन मन्दिर कोई अवश्य ही था। फिर जैनों के दन्तकथा साहित्य से भी हमें जानना पड़ता है कि, महावीर के जीवन काल में भी, उनके माता-पिता एवम् उस समय का जनसंघ पार्श्वनाथ तीर्थकर को पूजते थे। जैनों में मूर्तिपूजा निश्चित रूप से कब प्रवेश हई थी, इस प्रश्नों की मीमांसा करने की हमें
1. फरग्यूसन, वही, पृ. 15। 2. हेण्यल, एंशेंट एण्ड मैडीवल पाकिटेक्चर आफ इण्डिया, पृ. 46 । 3. कजन्स, पाकिटेक्चरल एण्टीक्विटीज ग्राफ व्यस्टर्न इण्डिया, पृ. 8 । 4. स्मिथ, दी जैन स्तूप एण्ड अदर एण्टीक्विटीज प्राफ मथुरा, प्रस्तावना प.3।
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