Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 205
________________ 194 ] विचारणीय प्रश्न है। कुछ भी हो, इसमें हमें भारतीय ज्योतिष की वह मूल पद्धति मिलती है कि जो ग्रीकों के प्रामाणिक और मारी प्रभाव के पहले की है। भारतीय खगोल विद्या की मौलिक पद्धति का सूर्यप्रज्ञप्ति एक अद्वितीय उदाहरण है। पूर्व में ग्रीक प्रभाव पड़ा उसके पूर्व की वह है। यह बात अन्य विद्वान भी स्वीकार करते हैं। जैन इतिहास की दृष्टि से इसका महत्व स्पष्ट है। अन्तिम पांच उपांग निरयावली सूत्र नाम के एक ही मूल ग्रन्थ के पांच विभाग है। व्यबर के शब्दों में इन पांच विभागों को पांच उपांग रूप से गिनना अगों की संख्या से उपांगों की संख्या मिलाने के विचार से हो उद्भव हुई मालूम होती है। आठवें उपांग का ऐतिहासिक महत्व इस बात में है कि कुणिक के दस सौतेले भाई महान् लिच्छवी राजा चेडग के विरुद्ध किए युद्ध में मारे गए थे और उसके फल स्वरूप उन सब ने भिन्न भिन्न नरकों में जन्म लिया । सिद्धांत के दूसरे समूह उपांग के विषय में इतना ही कहना पर्याप्त हैं । अब तीसरे समूह दस पयन्ना अथवा प्रकीणों का संक्षेप में विचार करें । ये ग्रन्थ जैसा कि इस नाम शब्द का भावार्थ है, 'असंलग्न', 'शीघ्रता में लिखी हुई रचनाओं का संग्रह हैं । जैसे वेदों के परिशिष्ट हैं, वैसे ही हम इन प्रकीणों को अंगों के परिशिष्ट कह सकते हैं । कुछ अपवादों को छोड़ कर हम इनको वैदिक परिशिष्टों की भांति ही पद्य में लिखे हुए पाते हैं । इनमें सर्वत्र सामान्यतया आर्या छन्द ही प्रयुक्त हुआ देखते हैं, वही छन्द जो अंगों में कारिकामों के लिए प्रयोग किया गया है। इन पहन्नों में अनेक विषय चचित हुए हैं। इन्हीं में से एक विषय है वे प्रार्थनाएं जिनके द्वारा अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म रूपी चार शरणों को स्वीकरण किया जाता है, अनशन द्वारा समाधि-मरण कहा जाता है। इन्ही में मूरण में चेतना, गुरू और शिष्य के गुण, देवों की गणना आदि आदि विषयों की भी चर्चा है। सिद्धान्त का चौथा समूह छेदसूबों का है। इनमें साधारणतः साधू-साध्वी की जीवनचर्या सम्बन्धी निषेधों का, उनकी स्खलना के दण्ड या प्रायश्चित्त का विचार किया गया है, हालांकि गौण रूप से अनेक दन्तकथाएं भी इनमें आ गई हैं। इसीलिए बौद्धों के विनय ग्रन्थों से ये मिलते हुए हैं। कितनी ही बातों में भिन्न होते हुए भी विषय और विवेचन पद्धति में दोनों में बहुत समानता है। विटनिट्ज और व्यबर दोनों के अनुसार वर्तमान छेदसत्रों का बहत सा माग अत्यन्त ही प्राचीन है, क्योंकि इस विभाग के परमसारांश छेदसत्र तीसरा, चौ पांचवां सिद्धांत का प्राचीनतम भाग हैं:8 ये तीनों अर्थात् तीसरा चौथा और पांचवां छेदसूत्र जिनका नाम क्रमशः दसा-कप्प-ववहार है, एक समूह 1. व्यबर, इण्डि. एण्टी., पुस्त 21, प. 14-15 । 2. देखो याकोबी, सेबुई, पुस्त 22, प्रस्तावना पृ. 40; लायमन, वही, पृ. 552-5531 थीबो, बंएसो पत्रिका सं. 49, 1880, पृ. 108। सूर्यप्रज्ञप्ति सम्बन्धी विशेष महत्व के कुछ तथ्यों के लिए देखो वही, पृ. 107 121, 181-2061 3. व्यबर, वही, पृ. 23 । 4. देखो निरयावालिकास्त्र, पृ. 3-19। 5. व्यबर, वही, पृ. 106। देखो विटनिट्ज, वही, पृ. 3081 6. देखो ब्यबर, वही, पृ. 109-112; विटनिट्ज, वही और वही स्थान । 7. देखो व्यबर, वही, पृ. 179; विटनिट्ज, वही, पृ. 309 । 8. देखो विटनिट्ज, वही, पृ. 309; व्यंबर, वही, पृ. 179-180 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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