Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 215
________________ आठवां अध्याय उत्तर-भारत में जैन कला हम इस अध्याय में उत्तर भारत की कला के इतिहास में शिलालेख, स्थापत्य और चित्रकला में जैनों के योगदान का सामान्य रूप से विचार करेंगे। डॉ. गैरीनोट कहता है कि "भारतीय ललितकला को जैनों ने अति अद्वितीय अनेक स्मारक प्रदान किए हैं। स्थापत्य में विशेष रूप से जैन उस प्रवीणता के पहुँच गए हैं कि जहाँ उनकी प्रतिस्पर्धी कोई भी नहीं है ।"] यह निःसंशय सत्य है कि जैनों का प्रत्युत्तम प्रदर्शन स्थापित में हुआ है । इसका कारण जैनों का वह विश्वास है और जो भारतीय अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक भी है, कि मोक्ष की साधना में मन्दिर-निर्माण उपकारक है । इसलिए उनकी स्थापित्य रचनाएं उनकी जन संख्या की तुलना में अन्य धर्मों की अपेक्षा कहीं अधिक संख्या में हैं। पहली बात तो यह है कि इनके स्थापत्य में विचित्रता बहुत पाई जाती है। वे अपने मन्दिर जंगल भरी या अनुर्वर पहाड़ियों के ढ़लाव में, और सजावट की जहां असीम क्षेत्र हो वैसे वियावान स्थानों में बनाना ही पसन्द करते हैं । समुद्र सतह से 3000 से 4000 फुट ऊँचे शतुजय एवं गिरनार पर्वतों के शिखर पर मन्दिरों के भव्य नगर सुशोभित हो रहे हैं। इस प्रकार मन्दिर नगर बनवाने की विशिष्टता का अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनों ने ही विशेष रूप से अमल किया है । "शतु जय के शिखर पर, विशेषतया, प्रत्येक दिशा में सुवर्णमय और रंग-बिरंगी नक्शीदार मन्दिर खुले और मूक खड़े हैं। उनमें चमकते प्रदीपों के बीच में भव्य और शांत तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं । इन प्रशांत मुद्राओं के समूह वाली मन्दिरों की श्रेणियां और गगनचुम्बी गढ़ों में के देवदेवी यह सूचना करते मालूम पड़ते हैं कि ये सब स्मारक मानवी प्रयत्न से नहीं, अपितु किसी देवी प्रेरणा से ही निर्मित हुए हैं ।"3 आकार और संरचना की इस विविधता के होते हुए भी, शतु जय और गिरनार के समूह दोनों ही, जूनागढ़ के पूर्व में स्थित बावा प्यारा नाम से कहलाते अाधुनिक मठ और अनेक जैन गुफाओं के अतिरिक्त, कोई भी ऐतिहासिक उल्लेख या स्मारक नहीं हैं कि जिनकी सुगमता से खोज की जा सके। ऐसे कोई भी उल्लेख या स्मारक यदि वहाँ रहे होते तो भी "मुसलमान राज्यकाल की चार शताब्दियों में प्राचीनता के अधिकांश चिन्हों को मिटा दिया होगा।" कल्पना की सुन्दरता और कला का धीर संस्कार दोनों ही दृष्टि से जैन ललितकला को प्रदर्शित करने वाले अद्वितीय स्मारकों में चित्तौड़ को कीर्ति और विजय स्तम्भ, एवम् प्राबू-पर्वत के जैन मन्दिर गिनाए जा सकते हैं । 1. गैरीनोट, ला रिलीजियां जैना, पृ. 279 1 2. फरग्यूसन, हिस्ट्री ऑफ इण्डियन एण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, भाग 2, पृ. 24 । देखो स्मिथ, ए हिस्ट्री ऑफ फाइन आर्ट इन इण्डिया एण्ड सीलोन, पृ. 11 ।। 3. ईलियट, हिन्दूइज्म एण्ड बुद्धीज्म भाग 1, पृ. 121 । 4. देखो बन्यस, पासवेई, 1874-1875, प. 140-141, प्लेट 19 अादि । “यहां बौद्ध लक्षणिकता का कोई स्पष्ट चिन्ह तक भी नहीं है । औरों की भांति ये भी संभवतः जनमूल के ही हैं।" -फरग्यूसन, वही, पृ. 31 । 5. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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