Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 217
________________ 206 ] साम्प्रदायिक विभिन्नताओं हमें भारतीय कला के साम्प्रदायिक विभाजन या वर्गीकरण की ओर ललचाती है, परन्तु यह ठीक नहीं है। इसमें संदेह नही, जैसा कि हम आगे चल कर देखने ही वाले हैं, कि प्रत्येक धर्म की विविध अनिवार्य आवश्यकताओं का प्रभाव, विशिष्ट अभिप्राय के प्रावश्यक संरचना के स्वभाव पर पड़ता है, परन्तु फिर मी ललितकला कृतियां जिनमें स्थापत्य भी समाविष्ट है, उनकी भौगोलिक स्थिति और आयु की दृष्टि से ही वर्गीकरण की जाना चाहिए न कि जिस धर्म की सेवा के लिए उनकी कल्पना की गई हो उसकी दृष्टि से ।। इसलिए स्थापत्य या शिल्प की जैन शैली जैसो कोई भी बात नहीं है। यह बात इससे और भी स्पष्ट हो जाती है कि बौद्ध एवम् जैन दोनों ही के प्रमुख मूति-शिल्प इतने तादृश हैं कि उन्हें ऊपरि दृष्टि से देखने वाला इस प्रकार वर्गीकरण कर ही नहीं सकता है कि अमुक-अमुक सम्प्रदाय का है और अमुक-अमुक सम्प्रदाय का । इस प्रकार का शीघ्र विवेक करने के लिए पर्याप्त और लम्बे अनुभव की आवश्यकता है।' भारतीय कला के अभ्यासी के लिए दूसरी महत्व की बात यह है कि यद्यपि सब भारतीय कला धार्मिक ही है। फिर भी भारतीयों को धार्मिक, सौन्दर्य, और वैज्ञानिक दृष्टि अवश्य ही विरोधात्मक नहीं है, और उनकी सभी कला कृतियों में, चाहे वह शान-वाद्य की, साहित्यिक या भास्कर्य किसी की भी क्यों न हो, ये दृष्टिकोण कि जिन्हें आजकल इतनी स्पष्टता से व्यक्त किया जाता है, प्रपार्थक्यरूप में मिले हए होते हैं। यह निःसन्देह देखना ही शेष रह जाता है कि यह मर्यादा या अनुशासन शक्ति के श्रोत का काम देता है अथवा उसे उपदेशी अभिप्राय का दास बना देती है। फिर भी यद्यपि धार्मिक कथा, प्रतीक या इतिहास कलाकार को कार्य करने की प्रेरणा देते हैं, परन्तु वे ही उसको हाथ चलाने की प्रेरणा नहीं देते हैं। ज्यों ही वह काम करने लगता है, कला उन्मुख हो जाती है और वह इन तीनों ही से भाववही प्रेरणा प्राप्त करता रहता है। यही कारण है कि "नवजागृत इटली का प्रचण्ड धर्मोत्साह अपने समस्त चित्र प्रतीकों सहित अपने कलाकारों को उपदेशक की अपेक्षा कुशल चित्रकार बनने से रोक नहीं सका था और वे धर्म-प्रचारक की अपेक्षा मण्डनकारों के प्रति ही निष्ठावान रहे थे । सिग्नोरेली, इसी कारण अपने पवित्र प्रसंगों को वास्तविक जीवन से प्रेरित कला की अपनी खोजों के प्रमुख साधन रूप में 1. देखो कुमारास्वामी, हिस्ट्री आफ इण्डियन एण्ड इण्डोनेसियन पार्ट, पृ. 106 । परन्तु, यद्यपि प्राय: सब भार तीय कला धार्मिक है, यह सोचना भ्रमपूर्ण है कि शैली धर्म पर निर्भर करती थी फरग्यूसन का प्रार्ष ग्रन्थ हिस्ट्री आफ इण्डियन प्रार्किटेक्चर इस भ्रामक मान्यता से कि बौद्ध जैन और हिन्दू की स्पष्ट शैलियाँ विद्यमान थी, बुरी तरह भ्रष्ट हो गया है । स्मिथ, ए हिस्ट्री प्राफ फाइन आर्ट इन इण्डिया एण्ड सीलोन, पृ. 9। 2. वही । 3.जन स्तुपयाकृति में बौद्ध स्तूप से कुछ भी भिन्न नहीं होते हैं और जैन वक्रीय शिखर हिन्दू मन्दिरों के शिखरों के समान ही प्रायः होते हैं । "-वही।"...अत्यन्त सुशिक्षित व्यक्ति भी एक प्रकार की मूर्ति का दूसरी मूर्ति से विवेक नहीं कर सकते हैं।" -राव, एलीमेंट्स आफ हिन्दू ग्राहकोनोग्राफी, भाग 1, खण्ड 1, पृ. 220 । 4. देखो कुमारास्वामी, दी पार्टस एण्ड क्राफ्ट्स आफ इण्डिया एण्ड सीलोन, पृ. 16 । नियाम याने शास्त्रानुसार (निर्मित मूर्ति) सुन्दर होती है, अन्य कोई भी निश्चय ही सुन्दर नहीं होती; कोई उसे सुन्दर (कहते हैं) जो (उनकी ही) अपनी कल्पनानुसार होती है। परन्तु वह जो शास्त्रानुकूल नहीं होती, जानकार मर्मज्ञों को वह असुन्दर (लगती है)। वही । हिन्दू सदा ही धार्मिक उदाहरण के ब्याज से सौन्दर्य-विज्ञान के तत्व ही प्रस्तुत करते हैं । स्मिथ, वही, पृ. 8 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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