Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 206
________________ [ 195 रूप में ही हैं। इनमें से कल्प और व्यवहार की रचना बहुधा भद्रबाहु की ही कही जाती है जिनने इन्हें नौवें पूर्व से उद्धार किया था, ऐसा भी कहा जाता है। इस समूह में के दसा याने आचारदशा जिसे दशाश्रुतस्कंध भी कहा जाता है, के कर्ता रूप से तो भद्रबाहु के विषय में दन्तकथा भी समर्थन करती है। इसी का आठवां भद्रवाह का कल्पसत्र नाम से सुप्रसिद्ध है ही। यह सारा का सारा ही कल्पसूत्र है याने इस नाम के सारे ग्रन्थ के तीनों विभाग याने खण्ड । परन्तु याकोबी और अन्य विद्वान ठीक ही कहते हैं कि यथार्थ में अन्तिम याने तीसरा खण्ड ही जिसका शीर्षक 'सामाचारी'याने यतियों के नियम जिसे 'प!षणा कल्प भी कहा जाता है' ही वह है और वही, आयारदसायो के शेषांश सहित, भद्रबाहु रचित कहा जाने योग्य है। भद्रवाह के कल्पसूत्र की विस्तार से चर्चा करने को फिर से यहाँ अावश्यकता नहीं है। हम इसका पर्याप्त निर्देश महावीर और उनके पुरोगामी तेईस तीर्थकरों के चरित्र, महावीर के उत्तराधिकारी जैन युगप्रधानाचार्य, और यतियों के पालने के विधि-विधानों के वर्णन समय कर चुके हैं । छेदसूत्रों की इतनी सी चर्चा ही पर्याप्त है। आगे हम अन्तिम दो विभागों का याने मुलसूत्र विभाग और दो चूलिका सूत्र विभाग का संक्षेप में विचार करेंगे। पहले मूलसूत्र विभाग को ही लें। जैन सिद्धांत के इस विमाग समूह का नाम मूलसूत्र क्यों दिया गया यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। सामान्य बोलबाल में तो इस शब्द का अर्थ यही होता है कि मौलिक ग्रन्थ । परन्तु शाऐंटियर के अनुसार ऐसा हो सम्भव दीखता है कि बौद्धों की ही भांति जनों ने भी इस मूल शब्द का प्रयोग मूल-पाठक के अर्थ में ही किया हो, और वह भी भगवान महावीर के मूल शब्दों को अनुलक्ष करके ही किया गया हो। इन सूत्रों के विवक्षित विषयों का जब विचार करते हैं तो इनमें से पहले तीन, साहित्यक दृष्टि से, अत्यन्त महत्व के प्रतीत होते हैं। इनमें भी उत्सराध्ययन जो इस विभाग का सर्व प्रथम सूत्र है, और जिसमें प्राचीन श्रामणिक काव्य के उदाहरण हैं. सिद्धान्त का अति मूल्यवान विभाग है । साधू की आदर्श जीवनचर्या के नियमों और उन्हें स्पष्ट करने वाली उपमा कथाओं से यह सूत्र भरा हुआ है । प्राचीन विद्वानों के मन्तव्यों का जो सार याकोबी ने दिया है उससे मूल ग्रन्थ का उद्देश नएसाधू को उसके मुख्य प्राचारों की सूचना करने, उदाहरणों और उपदेशों से साधू जीवन की महत्ता बताने, आध्यात्मिक जीवन के भय स्थानों से उसे सावधान करने, और कुछ सैद्धान्तिक सूचनाएं देने का हैं । जैन साहित्य के आधुनिक विद्वानों के अनुसार, इसके अधिकांश विषय हमारे पर उसके प्राचीनतम होने की छाप डालते हैं और हमें ऐसे ही बौद्धशास्त्रों का स्मरण दिलाते हैं, विशेषतः दूसरा अंग अर्थात् वह कि जो सिद्धांत का अत्यन्त प्राचीन ग्रंश है। उसका उद्देश और उसमें चर्चित विषय इस प्रकार सूत्रकृतांग से मिलते जुलते हैं। फिर भी उत्तराध्ययन में प्रजनवादों की चर्चा पूरी तौर से नहीं की गई है, कहीं कहीं संकेत मात्र उनका कर दिया गया है। दृष्टतः समय बीतने के साथ अजनवादों का भय कम होता गया और जैनधर्म की संस्थाएं दृढ़ता से जमती गई । नए साधू के लिए जीव और अजीव का ठीक ठीक ज्ञान होना महत्व का माना गया है क्योंकि इस ग्रन्थ के अन्त में इसी विषय पर एक लम्बा अध्याय जोड़ दिया गया है।' 1. देखो विटनिट्ज, वही, पृ. 309; व्यबर, वही, 179, 210। 2. दसकप्पम्ववहारा, निझढा जेण नवपपव्वाप्रो । वादामि भद्रबाहु,...। ऋषिमण्डलस्तोत्र, श्लो. 166 । 3. याकोबी, कल्पसूत्र, पृ. 22-233; विटर्निट्ज, वही, वही स्थान ; व्यबर, वही, पृ. 211 । 4. शार्पटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 32। 5. याकोबी, सेबुई, पुस्त 45, प्रस्ता. पृ, 39 । .6. देखो शाटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 34; विटनिट्ज, वही, पृ. 312; व्यबर, वही, पृ. 310 । 7. याकोबी, वही और वही स्थान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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