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सम्पूर्णतया नाश तो महावीर निर्वाण के 1000 वर्ष पश्चात् ही हुमा यान सिद्धान्त ग्रन्थों के अन्तिम प्रतिसंस्करण के ही समय । चाहे जिस अंश में हम जैनों की इस दन्तकथा को स्वीकार करें, फिर भी डा. शाटियर के अनुसार हम भी यही कहेंगे कि 'जैनों का यह कथन मारा का सारा ही एक दम उपेक्षित और अवमानित किए जाने योग्य तो नहीं ही है।
___ अब सिद्धान्त के दूसरे विभाग उपांगों का हम विचार करें। पहली बात तो यह है कि अगों की संख्या के अनुरूप ही उपांगों की संख्या है। व्यबर और अन्य विद्वानों के अनुसार, 'अंगों और उपांगों में सच्चे अतरंग सम्बन्ध का ऐसा काई भी उदाहरण नहीं कि जो श्रेणी में ऐसा ही स्थान रखता हो। उदाहरणार्थ पहला उपांग औपपातिक को ही लीजिए। जैसा कि पहले कहा जा चुका है इसकी ऐतिहासिक महत्व इस बात में हैं कि इसमें महावीर के चम्पा में सागमन और वहां देशना देना एवम् चम्पा के राजा कूरिणय याने अजातशत्रु के महावीर के दर्शन और वन्दना को पाना है।।
दूसरे उपांग राजप्रश्नीय का अधिकांश भाग सूर्याम देव के अपने बृहत्परिवार और परिकर सहित राजा श्वेत की अमलकप्पा नगरी में महावीर को वन्दन करने पाने और विशेषतः उनके समक्ष नाच, गान और वाद्यादि द्वारा अपनी भक्ति को प्रदर्शित करने के वर्णन में रुका हुआ है। फिर भी इसका सारातिसार राजा पएसी (प्रदेशी) और श्रमण कैसी के बीच हुए संवाद-विवाद में या जाता है जो कि जीव और देह के पारस्परिक सम्बन्ध को ले कर प्रारम्भ होता हैं और मुक्तमन राजा के जैनधर्मी हो जाने में समाप्त होता है।
शेष उपांगों में से तीसरे और चौथे का हम साथ ही विचार कर सकते हैं क्योंकि वस्तु और चर्चा में दोनों ही समान हैं। तीसरे में संवाद रूप से चेतनमय प्रकृति के भिन्न भिन्न वर्गों और रूपों की चर्चा की गई है। पक्षान्तर में चौथे उपांग पन्नवरणा या प्रज्ञापना में जीवों के भिन्न भिन्न भेदों की जीवनचर्या की विवेचना है। यह प्रज्ञापना उपांग शेष सिद्धांत ग्रन्थों से भिन्न दीख पड़ता है। खरतर और तपगच्छ की पट्टावलियों में महावीरात् चौथी सदी में होने वाले आर्य श्याम (अज्ज साम) या श्यामार्य इसके कर्ता कहे गए हैं।
पांचवाँ, छठा और सातवा उपांग सूर्यप्रज्ञाप्त, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति हैं। ये जैनों के वैज्ञानिक ग्रन्थ हैं। भारतवर्षकी दन्तकथानुसार इनमें खगोल, भूगोल, प्रौरस्वर्गादि का एवं काल-गणना पद्धति का अनुक्रमसे वर्णन किया गया है। पांचवें उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति पर विशेषरूप से विचार करना आवश्यक है । डा. व्यबर कहता है कि इसमें जैनों की खगोल का व्यवस्थित वर्णन है । ग्रीक प्रभाव ने इसमें परिवर्तन कुछ भी किया या नहीं, यह एक
1. देखो शाटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 23 । 2. व्यबर, वही, पृ. 366 । देखो विटनिटज, वही और वही स्थान । 3. देखो राजप्रश्नीयसूत्र (आगमोदय समिति) सूत्त । आदि । 4. देखो वही, सूत्त 65-79 1 5. देखो व्यबर, वही, पृ. 371, 373 । 6. देखो क्लाट, इण्डि. एण्टी., पूस्त ।1, पृ. 247, 251। शाटियर के अनुसार, चौथा उपांग स्पष्टतया युगप्रधान आर्य श्याम की रचना कही गई है जो कालकाचार्य से निःसंदेह ही अभिन्न है और जिनको दन्तकथा विक्रमादित्य के पिता गर्दभिल्ल के समय में होना कहती है। शाटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 27%; देखो याकोबी, जेडीएमजी, सं. 34, पृ. 251 आदि ।
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