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जैनों का वर्णनात्मक कथाएं हैं । कथा कहने की जैनों की रीति बौद्धों की कथा कहने की रीति से कुछ अति पावश्यक बातों में विभिन्न है । उनकी मूल कथा भूतकाल की नहीं अपितु वर्तमान काल की होती है; वे अपने सिद्धांत की बातों की शिक्षा प्रत्यक्ष रूप में नहीं देते; और उनकी कहानियों में भावी जिन या तीर्थकर को पात्र रूप में प्रस्तुत करने की भी कोई आवश्यकता नहीं होती है ।।
जनों के ये वृत्तांत अधिकांश में उपमेय वार्ता के रूप में हैं। सामान्यतः मुख्य वार्ता की अपेक्षा उसके उपमेय पर ही खूब भार दिया जाता है । विवेच्य आगम के प्रथम स्कन्ध में एक वार्ता ऐसी ही है जो इस प्रकार है : एक सेठ की चार पुत्र-वधुएं हैं । इनकी परीक्षा लेने के लिए सेठ प्रत्येक को पांच दाने शालि याने धान के देता है और उन्हें उस समय तक सुरक्षित रखने को कहता है जब तक कि वह उन्हें लौटाने का आदेश नहीं दे । इसके अन्तर इन पुत्र वधुओं में से एक यह विचारती हुई उन पांच दानों को फेंक देती है कि भण्डार में धान ही घान भरा हया है । जब सेठ मांगेंगे मैं उन्हें दूसरे दाने भण्डार में से लेकर लौटा दूंगी। 'दूसरी भी इसी प्रकार सोचती हुई वे पांच दाने खा जाती है। तीसरी उन्हें अपने आभूषणों के डिब्बे में सावधानी से रख देती है। परंतु चौथी उन्हें बो देती है और उनसे अच्छी फसल बार-बार उठाती है यहाँ तक कि पांच वर्ष में इस फसल से धान के भण्डार भर जाते हैं। जब सेठ अन्त में अपने दिए दाने लौटाने की आज्ञा देता है तो वह पहली दो पुत्र-वधुत्रों की निंदा करते हुए उन्हें गृहस्थी के निकृष्टतम कार्य करने का भार सौंपता है, तीसरी को गृहस्थी की समस्त सम्पत्ति की रक्षा का आदेश देता है और चौथी को सारी गृहस्थी का प्रबंध सौप देता है और उसे गृह स्वामिनी बना देता है । इस सामान्य कथा का उपनय यह है कि साधुओं की भी पुत्र-वधुनों को सी चार जातियां होती है। कुछ तो अंगीकार किए पंच महाव्रतों की परिपालना की जरा भी चिंता नहीं करते, कुछ उनकी उपेक्षा करते हैं, परन्तु अच्छे साधू वे है जो सतर्कता से पंच महाव्रतों को पालते है और उत्कृष्टतम वे हैं जो न केवल स्वयम् पालते ही हैं अपितु उन्हें पालने वाले अनुयायियों को भी खोजते हैं ।'
सातवां, आठवां और नवां अंग भी बहुतांश में वर्णनात्मक विषयों के ही हैं। इनमें से सातवें याने उवासगदसायो में दस धनाढ्य और सुशील श्रावकों की कथाएं हैं कि जो गृहस्थ होने पर भी तपस्या द्वारा अन्त में उस उच्च दशा को पहुंच जाते हैं कि जहां श्रावक रहते हुए भी उनमें चमत्कारिक शक्तियां प्रगट हो जाती है। अन्त में वे यथार्थ जैन साधू की ही भांति संलेखना व्रत में दिवंगत होते हैं और मर कर तपस्वियों के उपयुक्त देवलोक या स्वर्ग में जाते हैं। इनमें से अत्यन्त रोचक कथा धनी कुम्हार सद्दालपुत्त की है कि जो कभी आजीविकों का सेवक याने अनुयायी था और जिसे महावीर ने अपने सिद्धांत का श्रद्धान विश्वास पूर्वक कराया था। इसी प्रकार पाठवें और नवें अंग में उन धर्मात्मानों की दन्तकथाए हैं कि जिनने अपने सांसारिक जीवन को समाप्त कर या तो मोक्ष या उच्चतम स्वर्ग प्राप्त किया था।
अब हम दसवें और ग्यारहवें अंग का विचार करेंगे जो क्रमशः प्रश्नव्याकरण और विपाकसूत्र है । दसवां अंग दन्त कथाओं का नहीं अपितु सैद्धांतिक बातों का है। परन्तु ग्यारहवां तो दन्तकथाओं ही का है। दसवें में
i. वही, पृ. 8 । 2. देखो ज्ञाता, सूत्र, 63 । पृ. 115-120 । 3. देखो हरनोली, उवासगदसायो, भाग 1, पृ. 1-44, आदि । 4. देखो हरनोली, वही, भाग 1, पृ. 105-140 । 5. देखो वान्येट, दी अन्तगडदसाम्रो एण्ड अनुत्तरोववाइयदसाम्रोष पृ. 15-16, 110 आदि ।
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