Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 201
________________ 190] का ठीक-ठीक वर्णन जहां किया गया है, वहां सिद्धान्त सम्बन्धी अनेक ज्ञातव्य बातें, पौराणिक भक्तों और जैन इतिहास का भी विवेचन है ।' सिद्धान्त को और अन्य अगणित कल्पनाओं को यथार्थ रूप में समझने का संपूर्ण भण्डार या विश्वकोश इन दोनों अंगों में हैं । जैनों का पांचवां अंग भगवतीसूत्र हैं। यह जैन सिद्धान्त का अत्यन्त महत्वपूर्ण घोर मौलिक ग्रन्थ है। जैन इतिहास की दृष्टि से भी इसका स्थान अद्वितीय है। पार्श्व और महावीर काल के एवं उनके समकालिकों सम्बन्धी अपने पूर्व प्रध्याथों में हमने इस अंग का एक से अधिक बार उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त इसमें जैन मान्यताओं की अनेक उलझनों का स्पष्टीकरण भी है जो कहीं उपदेश रूप से तो कहीं दन्तकथा के संवाद (ऐतिहासिक संवाद रूप से दिया गया है। इसकी दन्तकथाओं में सबसे प्रमुख वे हैं जो कि महावीर के समकालिकों पर पूर्वगामियों के पार्श्व के अनुयायियों के, जामानी और गोशाल के सम्प्रदायों के विषय में हैं। गोशाल पर तो भगवती का पन्द्रहवां शतक समूचा ही है । 2 'इन सब दन्तकथाओं से,' ब्यवर कहता है कि 'हमारे पर ऐसी छाप पड़ती है कि ये सब दन्तकथाएं परम्परा से सरल भाव में चलती या रही हैं। इसीलिए, बहुत सम्भव है कि, वे महावीर के जीवन काल की अनेक प्रमुख घटनाओं की (विशेषतः उनकी कि जो बौद्ध दन्तकथाओं के अनुरूप हैं) अति महत्व की साक्षी प्रस्तुत करती है ।" , सिद्धान्त के छठे अंगग्रंथ नायाधम्मकहाओ में हमें जैनों के वर्णनात्मक साहित्यक का दिग्दर्शन होता है। यह कहानियों या उपमेय दृष्टान्तों का संग्रह ग्रन्थ है जो नैतिक उदाहरण प्रस्तुत करने की दृष्टि से रचित हैं, पौर जैसा कि समस्त भारती वर्णनात्मक साहित्य में देखा जाता है. जैनों का यह कण साहित्य उपदेशात्मक ही है । अपने धर्मोपदेश के प्रारम्भ में प्रत्येक जैन धर्मोपदेशक साधू सामान्यतया कुछ गद्य में अथवा पद्यों में, अपनी धर्मदेशना का विषय कहता है और फिर उसके निरूपण में एक लम्बी रोचक कथा कह सुनाता है ताकि उसके अनुयायी वर्ग में महावीर के सिद्धान्तों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो क्योंकि यही उपदेश की प्रभावकता का प्रमो साधन है । हर्टल के अनुसार जैनों की ऐसी धर्मदेशना का साहित्यिक रूप बौद्ध जातकों से मिलता हुआ ही नहीं है, अपितु उससे कहीं बढ़ा-चढ़ा भी है 14 पौर्वात्य विद्याविद् का कहना है कि 'भारतीय इस कला को लाक्षणिक 1. देखो बिनिट्ज, वही और वही स्थान ब्येवर वही, पृ. 377 बारह अंगों के ब्यौरे सहित विवेचन के साथ यहां भी, जैसा कि नन्दी में हैं, दुवालसंगम गरिपिडगं समस्त पर एक पाठ दिया हुआ है। इस पाठ में उन सब आक्षेपों का कि जो भूतकाल में उस पर किए गए थे, जो वर्तमान में किए जा रहे हैं और जो भविष्य में किए जाएंगे, विचार संक्षेप में किया गया है और इसी भांति संक्षेप में इन्हीं तीनों कालों में जो इसे श्रद्धा सहित मौन' मति प्राप्त होने वाली है उसका भी विचार किया गया है और अन्त में इसकी शाश्वत्ता की निश्चित घोषणा की गई है न कबाइ न प्रासि न कपाइ ना 'सिय, न कवाइ भविस्सति । वही इस पर व्यंवर नीचे लिखी टिप्पणी करता है : 'अभयदेवसूरि के अनुसार जामाली, गोष्टामाहिल आदि आदि का विरोध - याने सात निरवों का वही, टिप्पण 65। 1 1 . 2. देखो विनिट्ज वही पू. 300-301 जिन दन्तकथायों का यहां संकेत किया गया है, वे ही हमारा खास ध्यान आकर्षित करती हैं कि जिनमें महावीर के समकालिक अथवा पुरोगामियों का, उनके भिन्न मती विरोधियों के विचारों का... और उनके धर्म परिवर्तन का विचार किया गया है। स्येवर इण्डि. एण्टी, पुस्त 19, पृ.64 3. वही, पृ.65 1 4. हर्टल, वही, पृ. 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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