Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 199
________________ 188 ] या प्राचारांगसूत्र का विचार करने पर हमें पता लगता है कि यह गद्य और पद्य दोनों में ही रचित उपलब्ध सिद्धांत ग्रन्थों में प्राचीनतम है । इसमें जैन साधू के प्राचार का वर्णन है। इसके दो विभाग याने श्रुतस्कन्ध हैं जो शैली में और विषय-विवेचना की रीति में परस्पर भिन्न-भिन्न हैं । इन दो श्रुतस्कन्धों में का पहला श्रतस्कन्ध वर्तमान धर्मग्रन्थों में अत्यन्त प्राचीन नहीं तो प्राचीनों में से एक होने की छाप बैठाता है । सूत्रकृतांग एवम् अन्य सिद्धान्त ग्रंथों की ही भांति इस प्राचारांग में भी हम देखते हैं कि इसके बड़े अनुच्छेद की समाप्ति 'ति बेमि' अर्थात 'इति ब्रवीमि' में होती है और टीकाकारों के अनुसार महावीर के गणधर शिष्य, सुधर्मा ही ने इस प्रकार कहने का ढंग अपनाया था। गद्य भाग का प्रारम्भ इस प्रकार होता है : "सूयम् मे ग्राउस, तेणं भगवया एवं अक्खायं" अर्थात् हे आयुष्मन्, मैंने सुना है। इस प्रकार उस महासंत ने कहा है । इस शैली में, महावीर के वाक्यों या कथन का मौखिक अनुवाद सुधर्मा ने अपने शिष्य जम्बू को संम्बोधन करते हुए किया है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, प्राचारांगसूत्र में प्रमुखतया चार अनुयोगों में से एक ही का विवेचन है कि जिनमें पवित्र ज्ञान विभाजित कर दिया गया है याने धर्मकथा, गणित (काल), द्रव्य और चरणवरण ।' उसके उपदेशों में समभावी और निष्पक्ष गुरू की वाणी और उसकी गम्भीर चेतावनी, आध्यात्मिक अथवा अन्य, का संमिश्रण है। भली प्रकार समझने के लिए इस सूत्र का एक अंश ही यहां उद्धृत कर देना समीचीन है : 'भूत, वर्तमान और भविष्य के अहंत और भगवंत सब यही कहते हैं, बोलते हैं, बताते हैं, समझाते हैं कि श्वासोश्वास लेते, अस्तित्व रखते, जीवन बिताते चैतन्ययुक्त सभी प्राणियों को मारना नहीं चाहिए, उनके साथ हिंसक रीति से बरतना नहीं चाहिए, उन्हें गाली नहीं देना चाहिए, पीड़ा नहीं देना चाहिए तथा उनको धुत्कार हकाल नहीं देना चाहिए।' ___ 'यह शुद्ध, अप्रतिम और शाश्वत नियम संसार का स्वरूप जानने वाले ज्ञानी पुरुषों ने प्ररूपित किया है। यह नियम ग्रहण करके किसी को उसे छुपाना नहीं चाहिए और न उसे छोड़ ही देना चाहिए । सत्य रूप में इस नियम का स्वरूप समझने वाले को इन्द्रियों के विषयों के प्रति उदासीन भाव पोषण करना चाहिए और सांसारिक हेतु से कुछ भी नहीं करना चाहिए...'; जो सांसारिक सुख में लुब्ध बनते हैं वे बारम्बार जन्म-मरण करते हैं।' दृढ़ता से अप्रमादी रह कर रात दिन तू प्रयत्न करता रहे; निरन्तर अपनी बुद्धि को समतोल रखते हुए इतना देखता रहे कि मोक्ष प्रमादी से दूर रहता है; यदि तूप्रमाद रहित बन जाएगा तो तूं जीत जाएगा । ऐसा मैं कहता हूं।' दूसरा अंग सूयगडांग या सूत्रकृतांग काव्य में दार्शनिक चर्चा करता है और अन्त में क्रियावाद, प्रक्रियावाद, वैनेयिकवाद और अज्ञानवाद के तर्कों का प्रत्युत्तर देता है। इस सूत्र का हेतु बाल-साधुनों को नास्तिक सिद्धांत 1. देखो विटनिट्ज, वही, पृ. 296; बेल्वलकर, वही, पृ. 108; व्यंवर, वही, पृ. 342 । 'मेरी सम्मति में प्राचा रांगसूत्र और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध दोनों ही सिद्धान्त के प्राचीनतम अंश माने जाना चाहिए ।-याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 41 । 2. देखो व्यवर, वही, पृ. 340; याकोबी, वही, पृ. 1,3; वैद्य, पी. एल., सूयगडांग, पृ. 65, 80 । 3. अनुयोग: चत्वारि द्वाराणि-चरणधर्मकालद्रव्यारख्यानि...सक्खिग्रज्जेहिं । जुगमासज्ज विभत्तो प्रणयोगों तो कयो __ चउहा ।।-पावश्यकसूत्र, पृ. 296 । 4. याकोबी, वही, पृ. 36-37। 5. देखो वैद्य, पी. एल., वही, पृ. 3-11। Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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