Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

Previous | Next

Page 197
________________ 186] शेष रह जाता है कि मूल सिद्धांत सर्वथा ही विलुप्त या नष्ट नहीं हो गया था। प्राचीन लिपिक साक्षी जो कि इस सम्बन्ध में प्रस्तुत की जा सकती है, वह मथुरा के शिलालेखों की है। जैसा कि हम देख आए हैं, उन अभिलेखों में जो अनेक शाखाओं और कुलों का निर्देश किया गया है, उनकी अभिन्नता उन शास्त्रों के उल्लेखों से बराबर प्रमारिणत होती है कि जिन्हें 'दिगम्बर परवर्ती और मूल्यहीन घोषित करते हैं हालांकि उनका कुछ अंश में उपयोग करते भी वे मालूम होते हैं।" फिर महावीर सम्बन्धी दन्तकथा भी मथुरा - शिल्प में जैसी कि श्वेताम्बर शास्त्रों में उल्लिखित पाई जाती है, वैसी ही अ ंकित मिलती है। जैन साधुत्रों को वाचक याने पाठक या उपदेशक के विरुद सहित उल्लेख किया गया है। डा. विटर्निट्ज के अनुसार यह शेषोक्त तथ्य इस बात की साक्षी प्राचीनलिपिक देता है कि जैनों के पवित्र धर्म शास्त्र ईसवी युग को प्रारम्भ तक तो अवश्य ही विद्यमान थे। फिर जैसा कि पहले कहा जा चुका है जैन साधू अपवाद रूप से नग्न भी रह सकते हैं ऐसा श्वेताम्बरों के ग्रन्थों में भी कहा गया है। ये सब बातें प्रमाणित करती है कि मूल पाठ में मनमाना फेरफार करने का जरा भी साहस किसी ने भी नहीं किया था अपितु उन्हें जहां तक सम्भव हुआ वहां तक सत्य रूप में ही दिया गया था। अन्त में जैन दन्तकथा की प्रामाणिकता की सब से बड़ी साक्षी यह है कि अनेक उपयोगी विवरणों में यह बौद्ध दन्तकथा से एकदम ही मिलती हुई है । 1 1 अनेक विद्वानों के अभिप्रायानुसार सिद्धान्त के होना भी इसका पुष्ट प्रमाण है कि ये सिद्धान्त ग्रंथ अपरिवर्तित और अबाधित रहना ही चाहिए परीक्षक मोर भारतीय छन्दशास्त्र को नि सामान्यतः इन सिद्धान्त ग्रन्थों में व्यवहृत सभों सिद्धान्त ग्रन्थों के छन्दों की अपेक्षा स्पष्ट ही अधिक एवम् धन्य उत्तरीय बौद्ध ग्रंथों में प्रयुक्त से अपेक्षाकृत स्पष्टतः प्राचीन हैं। इस प्रति निष्कर्ष पर पहुंचा कि सिद्धान्त का प्रमुख और महत्व का प्राचीन भाग ईसबी पहली शती और त्रिपिटक काल के मध्य का याने ई. पूर्व 300 से लेकर ई. 200 की अवधि में रचा हुआ होना ही चाहिए और मैं भी इस निष्कर्ष को बिलकुल न्याययुक्त ही मानता हूं 15 महत्वपूर्ण यंत्रों में ग्रीक खगोल के विचारों का उल्लेख नहीं अधिक नहीं तो कम से कम ईसवी सन् की पहली शती से तो 'उनके छंदों (Terminus a quo ) पर से याकोबी जैसे सूक्ष्म मी जैसे ही लगते ये सिद्धान्त ग्रन्थ प्रारम्भस्थल है क्योंकि चाहे वह तालिय, त्रिष्टुम और धार्या कोई भी हो, पाली विकसित हैं यही नहीं अपितु ये सिद्धान्त च ललितविस्तार प्रखर साक्षी से याकोबी इस इसके अतिरिक्त सारे सिद्धान्त ग्रंथों में छुटेछवाए अनेक वाक्य हैं कि जो जैन सिद्धान्त का समय निश्चित करने में परम सहायक होने जैसे हैं। इन सब वाक्यों को उद्धृत करना यहां श्रावश्यक नहीं है, फिर भी यहां एक 1. शार्पेटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 11 2. वाचकस्य बलवनस्य... आदि, पृ. q. 383-386 1 3. देखी बिनिट्ज, वही धौर वही स्थान । 1 4. देखो शापेंटियर वही प्रस्ता. पु. 25 परन्तु अधिक वजनदार तर्क यह है कि सिद्धान्त में हमें ग्रीक ज्योतिष का कुछ भी प्रभाव या चिन्ह नहीं दीखता है। सत्य तो यह है कि जैन ज्योतिष एक अविश्वासनीय सम्भवता की पद्धति है। यदि जैन ज्योतिष के लेखक को ग्रीक ज्योतिष का जरा भी ज्ञान होता तो वैसी असम्भव बातें लिखी ही नहीं जा सकती थी। चूंकि ग्रीक ज्योतिष का भारत में प्रवेश तीसरी या चौथी सदी ईसवी में हुआ लगता है, इससे ऐसा अनुमान होता है कि जैनों के आगम ग्रन्थ उस काल से पूर्व के ही रचित हैं ।' -याकोबी, वही, प्रस्तावना, पृ. 40 5. शार्पेटियर, वही प्रस्तावना, पृ. 25-26; याकोबी, वही, प्रस्तावना पु. 41 धादि । देखो बहूलर, वही और वही स्थान । तर एपी. इण्डि., पुस्त. 1, लेख सं. 3. 382 । देखो वही लेख सं. 4, 7, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248