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वाक्य उद्धृत करना उचित है क्योंकि सिद्धान्त-रचना काल के प्रश्न पर वह अच्छा प्रकाश डालता है। डा. शाटियर के शब्दों में वह इस प्रकार है : 'दूसरे उपांग रायपसेपइज्ज में जिसका दीघनिकाय के पायासीसूत्त से निकट सम्बन्ध देखकर, प्रो. लायमन ने दीर्घ विचार किया था, एक स्थान पर कहा गया है कि किसी ब्राह्मण ने अमुक अपराध किया हो तो उसे डाम दिया जाता था -याने सुनख (कुत्ते), या कुण्डिय का आकार उसके भाल पर डाम दिया जाता था । यह वर्णन कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दिए वर्णन के ही अनुरूप है जिसमें लिखा है कि चार चिन्ह इसके लिए प्रयोग किए जाएं-याने चोरी के लिए कुत्ते का, गुरूतल्पे (गुरू-पत्नि के साथ पापाचरण) के लिए भग का, मनुष्य की हत्या के लिए कबंध का, और सुरापान के लिए मद्यध्वज का चिन्ह डाम दिया जाए । परन्तु यह दण्ड-विधान मनु एवम् परवर्ती स्मृतियों में नहीं है यही नहीं अपितु इनमें ब्राह्मण को शारीरिक दण्ड से भी ऊपर माना गया है । ब्राह्मणों के शारीरिक दण्ड देने की प्रथा कौटिल्य के बाद ही बन्द हो गई होगी परन्तु जैन ग्रन्थों में ऐसे दण्ड का उल्लेख होने से यही अनुमान निकलता है कि अन्य धर्मशास्त्रों की अपेक्षा ये जैन ग्रंथ पहले के और कौटिल्य के समीपवर्ती काल के होना चाहिए ।
इन सब बातों को देखते हुए एक बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि श्वेताम्बरों के अभी के सिद्धान्त ग्रंथ के बाद के नहीं है यही नहीं अपितु कितने ही स्थानों पर उनमें घट-बढ़ हुई होने पर भी मूल ग्रंथों या पाठों पर ही वे रचित हैं । इन मूल पाठों की रचना समयक्रम से कब-कब हुई, यह प्रश्न रोचक होते हुए भी बड़ा उलझन मरा है । फिर भी इस बात में कोई भूल नहीं दीखती है कि इनका निश्चित रूप पाटलीपुत्र की परिषद में स्थिर किया हुपा ही होना चाहिए, यही नहीं अपितु कितनी ही विशिष्ट बातों में तो पाठ उससे भी प्राचीन काल के होना चाहिए । अब हम संक्षेप में पिद्धान्त-ग्रंथों के विषयों पर विहंगम ग प्रत्येक की आवश्यक बातों की चर्चा करते हुए उनका सारांश देने का यहां प्रयत्न करेंगे।
क्रमानुसार प्रथम स्थान चौदह पूर्वो का है। ये ही सिद्धान्त के प्राचीनतम विभाग हैं और श्वेताम्बर भी दृष्टिवाद नाम के बारहवें अंग के साथ-साथ ही सम्पूर्णतया विच्छेद जाना इनका मानते हैं । ये सर्वोत्तम प्राचीन सिद्धान्त स्वतन्त्र रूप में स्थायी नहीं रह सके तो इनका संकलन दृष्टिवाद नाम के बारहवें अंग में किया गया था। परन्तु फिर भी इनका ज्ञान स्थायी नहीं रखा जा सका और दृष्टिवाद का बारहवां अंग भी विलुप्त हो गया। पहले कहा ही जा चुका है कि पूर्वो का उपदेश महावीर ने स्वयम् दिया था, परन्तु अंगों की रचना उनके गणधर शिष्यों द्वारा हुई थी । डा. शार्पटियर कहता है कि 'यह दन्तकथा पौराणिक तीर्थकर ऋषमदेव द्वारा सिद्धान्त के रचे जाने की बात की उपेक्षा कर देती है और सिद्धान्त के मूल का महावीर द्वारा ही रचा जाना कहना निश्चय ही उचित है। तथ्यों के सामान्य वर्णन की दृष्टि से यह कथन कि सिद्धान्त का प्रमुख अंश महावीर और उनके निकटतम उत्तराधिकारियों से उद्भूत है, विश्वस्त ही लगता है ।'
पूर्वो के पश्चात् अंगों का नम्बर या स्थान प्राता है। प्रत्येक अंग में कुछ प्रौपचारिक विशिष्टता देखी जाती है कि जिमसे किसी किसी का पारस्परिक निकटतम सम्बन्ध प्रमारिणत होता है । बारह अंगों में से पहला, पायारांग
1. शामशास्त्री, कौटिल्याज अर्थशास्त्र, पृ. 250; उदयवीर, कोटलीय अर्थशास्त्र, अधि. 4, अध्या. 8, पृ. 136 । 2. शाटियर, वही, प्रस्ता. पृ 31 । 3. 'मुझे यह नहीं लगता है कि प्रमुख पवित्र धर्मग्रन्थ आज के रूप में, पाटलीपुत्र की परिषद् में निर्धारित पाठों __ के ही अनुरूप हैं।'-वही । देखो याकोबी, वही, प्रस्ता. पृ. 9,43 । 4. शाऐंटियर, वही, प्रस्ता पृ 11-12 ।
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