Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 209
________________ 198 ] तम टीकाएं जिन्हें नियुक्ति कहते हैं, कई बातों में सूत्रों से बहुत ही निकट संबंधित हैं अथवा उन्हें स्थानापन्न भी उनने कर दिया है। पिण्डोर घोष नियुक्तियों ने तो सिद्धांत ग्रन्थों में ही स्थान प्राप्त कर लिया है। घोषनियुक्ति. पूर्वी में से ही कुछ के धाधार पर रखी गई कही जाती है।" शापेंटियर के अनुसार नियुक्तियां यद्यपि प्राचीन हैं, परन्तु वे जनों के टीका साहित्य के प्राथमिक ग्रन्थ रूप कम नहीं कही जा सकती हैं। वे ही प्राचीनतम नहीं हैं अपितु जैनों के सिद्धांत पर उपलब्ध या वर्तमान प्राचीनतम टीकाएं अवश्य ही हैं । ऐसा कहने का कारण यह है कि नियुक्तियां मुख्यतया अनुक्रमणिका रूप में हैं, उन विस्तृत टीका की कि जिनमें सब वार्ताएं और दंतकथाएं विस्तार से दी गई हैं, ये सार रूप हैं । प्राचीनतम टीकाकार भद्रबाहु ही थे कि जिनने पहले कहे अनुसार वर्धमान के निर्वाण पश्चात् 170 वें वर्ष में काल धर्म प्राप्त किया था । सिद्धांत के भिन्न-भिन्न ग्रन्थों पर उनने दस नियुक्तियों की रचना की ऐसा कहा जाता है जिनके नाम इस प्रकार हैं:प्राचारांगनियुक्ति, सूत्रकृतांक नियुक्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्ति, दशाशुतस्कंध नियुक्ति, कम्पनियुक्ति, व्यवहारनिर्युक्ति, श्रावश्यक नियुक्ति, दशवैकालिक नियुक्ति, उत्तराध्ययन निर्युक्ति और ऋषिभाषित नियुक्ति | 2 बनारसीदास जैन के अनुसार भद्रबाहु की आवश्यक निर्युक्ति ही ऋषभदेव के पूर्वभवों का प्राचीनतम प्रमाण है क्योंकि 'प्रगों में तीर्थंकरों के पूर्व भवों का विशेष रूप में वर्णन नहीं मिलता है हालांकि उनमें महावीर के समसामयिकों में से अनेक के मत एवम् भविष्य भवों को अनेक निर्देश प्राप्त होते हैं। ये सब टीका ग्रन्थ इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि उनने हमारे लिए ऐतिहासिक और अर्धऐतिहासिक दंत कथाओं भिक्षु भी भारतीयों की उन्हें टिकाए रखने के वार्ताओं के इस प्रकार और लोकवार्ताओं का महान समूह संग्रहित कर दिया है। बौद्ध भिक्षुओंों की भांति ही जैन धार्मिक कथाएं सुनने की लुब्धता का लाभ उठाते अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने और लिए महर्षियों की कथाओं और लोक वार्ताओं का उपयोग करते रहे हैं । 'दंतकथाओं और संगृहित समूह में से अनेक तो प्राचीन काल की लोक कथाओंों के समूह में से हैं और कितनी ही जनों की अपनी दंतकथाओं में से ली गई है। शेष में से कितनी ही कदाचित परवर्ती काल में रची गई हो ऐसा लगता है और वे बाद में मूल ग्रन्थों की स्थाई टीकाओं में स्थान पाकर अमर हो गई हैं।" इसी प्रस्थात भद्रबाहु को मद्रबाहवी-संहिता कि जो सगोल विद्या का एक ग्रन्थ है. घोर पार्श्वनाथ की स्तुति 'उवसगहर' स्रोत का रचयिता कहा जाता है। उन्त भद्रबाहवी संहिता का कर्ता और नियुकियों का कर्ता भद्रवाह एक ही व्यक्ति है कि नहीं यह शंकास्पद है । यह संहिता भी अन्य संहिताओं जैसी ही है, फिर भी वराहमिहिर ने इसका कोई हवाला अपने ग्रन्थ में नहीं दिया है, हालांकि अपने प्रामाणिकों की सूची में उसने सिद्धसेन" एक अन्य जैन ज्योतिर्विद का नाम अवश्य ही गिनाया है। इसमें ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि यह भद्राबाहवी संहिता वराहमिहिर के परवर्ती काल की है । याकोबी के शब्दों में कहें तो स्थिति जो भी हो, इस संहिता का रचयिता वही मद्रबाहु कभी नहीं हो सकता है कि जिसने कल्पसूत्र की रचना की थी, क्योंकि उसका अन्तिम प्रति संस्करण, नामक 6. देखो विटिज, वही, पु. 317 I 2. शार्पेटियर, वही, प्रस्ता. पृ. 50-511 प्रस्ता. 12 1 पृ6. कर्न, बृहत्संहिताष भूमिका, पृ. 29 । Jain Education International 3. देखो आवश्यक सूत्र, गा. 84-86, पू. 61; याकोबी, वही, 4. जैन, जैन जातकाज; प्रस्ता. पृ. 31 5. शार्पेटियर नहीं, प्रस्ता. पु. 51 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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