Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

Previous | Next

Page 180
________________ [ 169 तक बताया जा सकता है और इसका समर्थन वह जैन, शिलालेख भी करता है कि जो कनिंघम को मथुरा में एक टूटी शिला पर मिला था और जिसमें चतुर्वर्ण संघ पढ़ा जाता है। " 1 साध्वियों के अस्तित्व के विषय में विशिष्ट बात यह है कि कोई साध्वी किसी धाविक को उपदेश करती मालूम होती है ऐसा यह एक ही उदाहरण मिला है। यहां साध्वी पूज्य कुमार मित्रा अपनी संसारी पुत्री कुमारमट्टि को वर्धमान की मूर्ति कराने का उपदेश देती है।" अन्य शिलालेखों में साध्वियां संघ की आधिकाओं को समष्टि रूप से ही दान देने की प्रेरणा करती हैं। उक्त कुमार मित्रा विधवा या सधवावस्था में पति के साथ ही साध्वी बनी यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि दोनों ही बातें सम्भव हैं। कदाचित् यह भी हो सकता हैं कि उसने अपने पति की जीवितावस्था में अकेले ही उसकी प्राज्ञा से दीक्षा ली हो विधवा मानता है और कहता है कि "ग्राज के समय में भी जैन साध्वियों का अधिकांश भाग विधवाओंों का ही होता है, जो बहुतेरी जातियों के सामान्य नियमानुसार, पुनर्विवाह नहीं कर सकती हैं और उन्हें सिर मुंडी साध्वी बनाकर बड़ी सरलता से उद्धार के मार्ग पर लगा दिया जाता है। । * डॉ. हूलर उसको डॉ. 95 मथुरा के शिलालेखों में निर्देशित साधू- कुलों और शाखाओं के सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उनमें कितने ही नाम ऐसे पाए हैं कि जिनका जैनों की दन्तकथा साहित्य में आने वाले नामों के साथ मेल खा जाता है।" जैन साधुओं के इन विभागों में अन्य शाखाओं की अपेक्षा कोट्टिय- कोटिक गरण के साधू ही मथुरा में अधिक संख्या में होंगे। डॉ. बहूलर के अनुसार "यह द्रष्टव्य है कि यही एक गरण चौदहवीं सदी ईसवी तक परम्परागत चलता रहा था। उसकी इतनी दीर्घ आयु और उसकी शाखात्रों की जैसी कि ब्रह्मदासिका कुल, उच्चनागरी शाखा 7 और श्रीगृह जिला जाति प्रादि की दीर्घ आयु का लेख सं. 4 से समर्थन होता है। इस शिलालेख की अन्तिम सम्भव तिथि सम्वत् 59 याने ई. सन् 128 129 है । तब वर्तमान पूज्य प्राचार्य सीह चार पुरोगामी अपने गुरुयों का नाम गिनाते हैं जिनमें से सर्व प्रथम ईसवी काल के प्रारम्भ में ही हुए होगे। यह गरण, जैसा कि लेख से प्रकट होता है, उस पुरातन काल में भी इतना विभक्त हो गया था, और यह बात उसके ई. पूर्व 250 में प्रारम्भ होने की दन्तकथा को पुष्ट करता है ।" 18 1. यह विशिष्ट जैन, सिद्धान्त है कि श्रावक और श्राविकाएं भी जैनसंघ के भाग होते हैं। इस विषय में जैन बौद्धों से बहुत ही स्पष्टतया विभिन्न हैं । 2. उक्त शिलालेख का हमारा अक्षरान्तरीकरण इस प्रकार है-नमोरतानं नमो सिद्धानं से 62 गु. 3 दि. 5... शिष्या चतुर्वर्णस्य संघस्य... वापिकाये देसि यह अभिलेख स्पष्ट नहीं है। कुछ स्वर-संकेत और प्रक्षर ठीक-ठीक पड़े नहीं जा सकते हैं। इसकी तिथि सम्बत् 92 है, और इसमें कुए के विषय में सम्भवतः चतुर्वर्ण समुदाय के लिए कहा गया लगता है। तिथ्यांश और दानोल्लेखश बहुत कुछ पठनीय है । दाता कोई स्त्री शिव्या मी लगती है, लेसे के लिए देखो कनियम, धाकियालोजिकल सर्वे इण्डिया रिपोर्ट 20 लेख सं. 6 प्लेट 13 देखो हर वही, पृ. 380 4. देखो वयर्स इण्डि एण्टी, पुस्त. 13. पृ. 2781 3. देखा वही लेख सं. 7, पृ. 385 386; वही, पृ. 380 6. देखो वही, पृ. 378-379 5. स्तर, वही, पृ. 380 7. यह भौगोलिक नाम ऊंचनगर के गढ़ के अनुरूप ही लगता है कि जो उत्तरप्रदेश के बुलन्दशहर में है । देखो कनिधम, प्राकियालोजिकल सर्वे ग्राफ इण्डिया रिपोर्ट, 14, पृ. 147 8. ब्लर वही, पृ. 379-389 देखो क्लाट, वही, इण्डि एण्टी, पुस्त. 11 पृ. 246 कोट्टियगण के सम्प्रदायों की बात कुछ भी कठिनाई उपस्थिति नहीं करती है क्योंकि वे सब कल्पसूत्र में दिए तदनुकूल नामों से मिलते हुए हैं। देखो याकोबी, कल्पसूत्र पृ. 821 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248