Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 182
________________ [ 171 छठा अध्याय गुप्त काल में जैनधर्म की स्थिति मथुरा के शिलालेख हमें बहुत कुछ कुषाण काल के अन्त तक ले पाते हैं । इस समय की दन्तकथाएं, स्मारक और शिलालेख यह सिद्ध कर देते हैं कि जैनों की सत्ता उत्तर-पश्चिमी भारत से लेकर दक्षिण में लगभग विध्याचल तक और पामीर की घाटियों से दूर प्रदेशों तक में थी। कनिष्क के राज्य से लेकर वासुदेव के समय में कुषाण सत्ता बिहार पर भी थी ऐसा मानने के पर्याप्त कारण हैं। उत्तर-भारत की यह सार्वभौम सत्ता वासुदेव के मरते ही टूट गई । कुषाण युग का यही अन्तिम राजा था और इसकी अधीनता में भारतवर्ष का बहुत व्यापक क्षेत्र था। स्मिथ कहता है कि यह तो स्पष्ट ही है कि कुषाण सना वासुदेव के लम्बे राज्य काल के अन्त में निर्बल पड़ गई थी और उसकी मृत्यु के पूर्व अथवा पश्चात् ही तुरन्त पौर्वात्य साम्राज्यों की जो दशा सामान्यतया होती है वही, कनिष्क के महान् साम्राज्य की भी हुई । अर्थात् थोड़े ही ममय तक सुन्दर संगठन का अनुभव कर वह भिन्नभिन्न भागों में विभक्त हो गया। अनेक राजों ने अपनी स्वतन्त्रता का दावा किया और उनने चाहे वह थोडे ही समय के लिए हुआ हो परन्तु फिर भी अपने पृथक-पृथक राज्य स्थापन कर लिये । परन्तु तीसरी सदी के इतिहास के साधन एकदम ही अप्राप्य होने के कारण यह कहना प्राय: असम्भव है कि ये स्वतन्त्र राज्य कितने और कैसे थे ? तीसरी और चौथी सदी के प्रारम्भ में पंजाब के अतिरिक्त उत्तरीय भारतवर्ष के राज्य वंशों का निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है। कुषाण साम्राज्य के अवसान और गुप्त साम्राज्य के उद्गम के बीच की एक सदी का समय भारतवर्ष के इतिहास का अन्धकारतम अन्तरिम काल है। फिर भी गुप्तों के उदय के साथ ही अन्धकार का वह पड़दा उठ जाता है और भारतीय इतिहास ऐक्य और रसका अनुभव करता है। गुप्तों के आगमन के साथ ही मगध फिर आगे आता है । 'इतिहास में दो बार उसने साम्राज्य की स्थापना की, मौर्य साम्राज्य ई. पूर्व चौथी और तीसरी सदी में, एवम् गुप्त साम्राज्य ई, चौथी और पांचवी सदी में ।' - छह सदी पहले के अशोक काल के साम्राज्य की विशाल सत्ता की अपेक्षा भी इस गुप्त साम्राज्य की सत्ता अधिक 1. देखो स्मिथ, वही, पृ. 274, 276; जायसवाल, बिउप्रा पत्रिका सं. 6, पृ. 22 । 2. स्मिथ, वही, पृ 288, 290 । 3. यह काल प्रत्यक्षतया अत्यन्त उलझन का था, यही नहीं अपितु उत्तर-पश्चिम से विदेशी आक्रमण भी तब हो रहे थे । इस स्थिति का दिग्दर्शन प्रामीरों, गर्दीमल्लों, शकों, यवनों, वाल्हीकों और अन्य प्रख्यात राज्यवंशों के कि जिन्हें बांधों के उत्तराधिकारी बताया गया है, पुराणों के विभ्रान्त वर्णनों से होता है । वही, पृ. 290 । 4. रेप्सन, वही, पृ. 310 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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