Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 186
________________ [ 175 लेख खुदा हुआ है, कहा का निर्देश है । उसकी तिथि 461) और ज्येष्ठ मास । गांव के उत्तर में कुछ दूर पर है। उस लेख में प्राचीन गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के राज्य शब्दों में दी हुई है जिसके अनुसार वह है, 141 वां वर्ष (तदनुसार ई. सन् 460लेख का उद्देश उसके नीचे उद्धृत अंश से स्पष्ट होता है : 2 'उसने (अर्थात् मद्र ने, जिसका नाम लेख की 8वीं पंक्ति में उल्लिखित है), इस समस्त संसार को (सदा ही) परिवर्तनों की परम्परा से गुजरता देख भयभीत हो अपने लिए बहुत धर्म कमाया (और अपने से) -ग्रन्तिम सुख के लिए (और) (सब) जीवित प्राणियों के कल्याण के लिए, पांच सुन्दर (प्रतिमाएं ), पाषाण की बनी, उनकी कि जिनने पहंतों के मार्ग में जो कि धार्मिक क्रियाएं करते हैं, अनुसरण किया है, स्थापित करके उस भूमि में फिर यह अत्यन्त सुन्दर पाषाण स्तम्भ, जोकि मेरू पर्वत के शिखर की चोटी के समान लगता है, (और) जो (उसकी कीर्ति प्रदान करता है, रोपण किया । " - शश कहार्ड शिलालेख यह अभिलेख करता है कि मद्र नाम के किसी व्यक्ति ने आादिकीर्तियों याने तीर्थकरों की प्रतिमाएं प्रतिष्ठापित कराई थी, और यह स्तम्भ पर की मूर्तियां द्वारा भी समर्थित होता है । इन मूर्तियों में की अत्यन्त महत्व की पांच खड़ी नग्न मूर्तियां हैं कि जो डा. भगवानलाल इन्द्रजी के अनुसार श्रादिनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्व और महावीर इन पांच लोकप्रिय तीर्थकरों की हैं।' 5 विद्वतापूर्ण विवेचन गुप्तों और जैनों का सम्बन्ध बताने वालों शिलालेखी इन साक्षियों के अतिरिक्त, हम मुनि जिन विजय " 6 के अत्यन्त प्रभारी हैं कि जिनका कुवलयमाला " का इसके गुप्तकाल के जैन - इतिहास पर बहुत ही प्रकाश डालता है। जैनों के इस कथासाहित्य के रचयिता विद्वान उद्योतनसूरि ने स्वयम् को इस ग्रन्थ में ही इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि जो उस काल की कि जिसमें वे हुए और प्रवृत्ति की थी, यथार्थता का प्रतीक है। हमें यह कहा गया है कि यह रोचक प्राकृत कथा शक सं. 700 याने ई. सन् 779 में समाप्त हुई थी।" इस काल में अनेक अमर रचनाएं हुई थी, परन्तु उनके लेखकों ने उनमें अपना नाम देने की जरा भी चिन्ता नहीं की है। फिर भी कुवलयमाला कि जिसमें ऐतिहासिक दृष्टि बराबर धन्तनिहित हुई है उस काल की एवं उन परिस्थितियों की 1. देखो फ्लीट वही, लेख सं. 15, पृ. 96; भगवानलाल इन्द्रजी, वही और वही स्थान । 2. पलीट वही, पृ. 68; भगवानलाल इन्द्रजी, वही, पृ. 126 I 3. लेख के इस श्रंश के यथार्थ शब्द इस प्रकार हैं : नियमवतामर्हतामादिकर्तन् पंचेन्द्रिस्था पयित्वा ... आदि । डॉ. इन्द्रजी ने इसको इस प्रकार अनदित किया है । " तपस्वी अर्हतों के मार्गनुसारी पांच प्रमुख प्रादिकर्तृ (तीर्थंकरों)... की स्थापना कर ।" - इण्डि एण्टी, पुस्त. 10, पृ. 126 । इस अनुवाद पर विद्वान पण्डित ने इस प्रकार टिप्पर दिया है । " आदिकर्तृ-मूलस्थापक, वह जिसने पहले पहल मार्ग बताया, परन्तु यह विशेषण तीर्थकरों के लिए सामान्यतः प्रयोग किया जाता है। देखो कल्पसूत्र, शत्रस्तव समोर समरणस्स भगवधो महावीरस्स... चरमतित्थयरस्स | इसका संस्कृत इस प्रकार है। नमोस्तु धमरणाय भगवते महावीरायादिकृतँ चरमतीर्थकराय - ।" वही, पृ. 126, टिप्पण 16 । 4. वही, पृ. 126 1 देखो फ्लीट, वही, पृ. 661 5 जिन विजय, जैसास, सं. 3, पृ. 169 बादि । 6. यह 8वीं सदी का जैनों के वर्णनात्मक साहित्य का एक ग्रन्थ है । . Jain Education International आज मारवाड़ में, परन्तु एक समय गुजरात काही अंश माने जाने वालों जाबालीपुर (जालौर) में यह पूर्ण किया गया था । 7. सगकाले वोली पृ. 180 1 वरिसाब सहि सत्तहि गएहि एगविणेहि रहया अबरण्हवेलाए 11 वही गाया 36, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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