Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 191
________________ 180 ] काल जीवित रहे होंगे और देवगुप्त ने अपने गुरू के अन्तिम दिनों में ही जैनदीक्षा ली होगी। तथ्य जो भी हो, हमें इस कल्पना पर अधिक भार देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि तब हम उस कालावधि के बाहर के विचार में उतर जाएंगे कि जिसका हमने अपने निबन्ध के लिए प्रतिबन्ध किया हुआ है । फिर उद्योतन सूरि की कथा के विषय में भी हम उस समय तक अधिक कुछ नहीं कह सकते हैं जब तक कि पुरातत्विक अधिक खोजें इसका कोई अन्तिम उत्तर नहीं दें। इस प्रकार का यह तथ्य कि गुप्तयुग में भी जैनधर्म एक क्रियाशील धर्म रहा था, अब तक के किए उपरोक्त विवेचन से प्रमाणित होता है। शिलालेखों के समूह से जो प्रायः समस्त या तो बौद्ध हैं या जैन और 'गुप्त राजों की' बौद्ध एवम् जैनधर्म दोनों ही धर्मों के प्रति परम सहिष्णुता नीति से भी ऐसा ही स्पष्ट होता है । अब एक बात और विचारने की रह जाती है और वह यह कि ई. 5वीं सदी के अन्त में वल्लभी वंश का उद्भव कैसे हुआ? इस वंश का उद्भव डेढ़ सौ वर्ष के गुप्तों के सुवर्ण राज्य के अन्तिम समय में ही हुआ कहा जा सकता है। कुमारगुप्त 1म की मृत्यु ई. 455 में निश्चय ही हो गई थी और तभी से उस साम्राज्य का पतन भी प्रारम्भ हो गया था। कुमारगुप्त 2य के राज्यकाल में इस साम्राज्य का निश्चय ही अन्त हो गया था । सौराष्ट्र द्वीपकल्प की पूर्व में आई हुई वल्लभी में इस वंश की जो कि ई. 770 तक चलता रहा था, स्थापना किसी भट्टारक नाम के सरदार ने की थी जो कि "मैत्रिक नाम के विदेशी कुल का एक सदस्य था।" वल्लभीवंश के इस भट्टारक के चार पुत्रथे और इन चारों को ही वल्लभीवंश ने राजों की सूची में कप्तान विलबरफोर्सब्यल एवं अन्य विद्वानों ने गिनाया है। इस सूची का चौथा राजा ध्र वसेन 1म, इस वंश के संस्थापक का तीसरा पुत्र होना चाहिए। हम उसका विशेष रूप से उल्लेख इसलिए करते हैं कि जैन-श्वेताम्बर-संघ के प्राचार्य देवधिगणि का वह समकालिक था, और ये दोनों ही उत्तर-भारत में जैनधर्म के शास्त्रों के अनभिलेखित युग के अंत होने के प्रतीक हैं। इसके अतिरिक्त श्री स्मिथ हमें यह भी विश्वास दिलाते हैं कि “वल्लभी के पहले-पहले के राजा स्वतन्त्र सत्ताधीश रहे हों ऐसा नहीं मालूम होता है। उन्हें हूणों को निःसन्देह खिराज देनी पड़ती होगी।"5 इस प्रकार यह ध्र वसेन भी हूणों का करद राजा ही होना चाहिए क्योंकि उसका राज्यकाल शाटियर और अन्य 1. स्मिथ, वही, पृ. 318, 320 । 2. वही, पृ. 346 । "...गुप्तों की शक्ति और प्रतापकम होता ही गया था और राज्य एवं अधिकार से वंचित होतेहोते ई. छठी सदी के अन्त तक बिलकुल ही उनका अन्त हो गया था।"-विलबरफोर्स-ब्यैल, दी हिस्ट्री ऑफ काठियावाड़, पृ. 37।। 3. स्मिथ, वही, पृ. 332 । "ई. लगभग 470 के, सौराष्ट्र के इतिहास में एक और परिवर्तन हुआ । इस वर्ष स्कन्दगुप्त की मृत्यु हुई, और चारणों का कहना है कि उस समयमैत्रक वंश को भट्टारक नाम का जो व्यक्ति सेना का महासेनाधिपति था । यह व्यक्ति सौराष्ट्र में पहुंचा, और अपने को स्वतन्त्र घोषित कर, उसने एक वंश स्थापित कर लिया जो कि आगे 300 वर्ष तक चलता रहा था । -विलबरफोर्स-ब्यैल वही और वही स्थान । देखो बान्यैट, वही, पृ. 49 ।। 4. देखो विलबरफोसं-व्यल, वही, पृ. 38-39; बान्यैट, वही, पृ. 49-50 । 5. स्मिथ वही और वही स्थान । “यह वंश प्रारम्भ में गुप्तों का मातहत था। फिर यह हूणों का मातहत हुआ और अन्त में स्वतन्त्र हो गया।" -बान्यँट, वही, पृ. 491 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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