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इस शिलालेख पर से हम देख सकते हैं कि मथुरा में एक प्राचीन स्तूप था जो स्टुलर के अनुसार ई. 157 (शक 79) में देव निर्मित माना जाता था. अर्थात् वह इतना प्राचीन था कि उसके निर्माण की सत्य कथा ही भुना गई थी। दूसरा शिलालेख कुषाण राजों के इतिहास के लिए महत्व का है। इसमें 'महाराज देवपुत्र हुक्ष (हुष्क याहुविष्क का नाम है। इससे हम निश्चय ही जान सकते हैं कि राजतंरिगिली में उल्लिखित और काश्मीरी गांव उपकर कपुर के नाम में सुरक्षित हुक शब्द सत्य ही प्राचीन समय में हुविष्क के पर्याय रूप ही प्रयोग होता था । "
इन कुषाण शिलालेखों के बाद कालक्रम से कोई तीन शिलालेख प्राते हैं जो डा. व्हलर के अनुसार गुप्त-काल के हैं । * एक अन्य शिलालेख जो वहां मिला है, वह ई. 11वीं सदी का है। इस प्रकार लगातार लगभग एक हजार वर्ष से कुछ अधिक जैनों का धार्मिक केन्द्र स्थल रूप से मथुरा रहा लगता है।" गुप्तकाल के गिलालेखों की चर्चा हम आगे के लिए छोड़ देते हैं जहां कि उस काल में जैनधर्म की स्थिति का विस्तार से विचार किया जाएगा। यहां तो इन सब शिलालेखों की जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से क्या उपयोगिता है, उसी का विचार करेंगे क्योंकि राजकीय दृष्टि से तो विचार इनका ऊपर हो ही गया है। इस रष्टि से इन लेखों की महत्ता दो प्रकार या कारणों से हैं। पहली तो जैनधर्म या जनसंघ के इतिहास के विशिष्ट भावों की दृष्टि से और दूसरा उत्तरीय जैनों के इतिहास की सामान्य महत्ता की दृष्टि से
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पहला कारण ही हम लें । इस सम्बन्ध में दो बातें हमारा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करती हैं । एक तो यह कि अन्तिम तीर्थंकर के अतिरिक्त ग्रन्य तीर्थ करों को इनमें नमस्कार किया गया या अंजलि अर्पित की गई है; दूसरा यह कि शिलालेखों में एक से अधिक तीर्थंकरों का उल्लेख है। पार्श्व और उनके पुरोगामी तीर्थकरों की ऐतिहासिकता का विचार करते हुए इसका विचार किया ही जा चुका है। फिर, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, कुछ अभिलेख इस प्रकार समाप्त होते हैं 'सर्व प्राणियों के कल्याण और सुख के लिए हो।' जैन महिसा के आदर्श का विचार करते हुए इसका निर्देश कर हो चुके हैं इन कुछ बातों के अतिरिक्त कि जिनकी विवेचना पहले की जा चुकी है, इन मथुरा के शिलालेखों सम्बन्धी अत्यन्त महत्व की बात यह है कि इनमें जैन साध्वियों के नाम एवम् उनकी महान् प्रवृत्तियों का भी निर्देश है। इसमें जरा भी शंका नहीं की जा सकती है कि आर्या संगमिका और मार्या वसुला कि जिनका नाम निम्न शिलालेख में आया है, साध्वियां ही है.... अयसिङ्गमिकये शिशीनिनं प्रर्यावसुलये निर्वर्तनं... आदि । (पूज्य संगमिका की शिष्या पूज्य वसुला के उपदेश से ... ) । यह बात उनकी उपाधि 'अर्था' (पूज्य), उनकी शिशीनि (शिध्या) और वक्तव्य से उनके निर्वर्तन याने मांगने अथवा उपदेश से दिया गया दान पर से स्वतः सिद्ध होता है इतना निश्चय हो जाने पर यह मानने में कठिनाई होती ही नहीं है कि मथुरा के शिलालेख वहां के जैनों में साध्वियों का अस्तित्व बताते हैं ।
इस प्रकार श्वेताम्बर चतुविध संघ में साधू, साध्वी श्रावक और धाविका का अस्तित्व ईसवी युग के प्रारम्भ
1. वही, पृ. 198 देखो शापेंटियर वही. पृ. 167
3. वही, पृ. 198 ॥
5. वही, सं. 41, पृ. 198
7. व्हूलर, एपी. इण्डि., पुस्त 1, लेख सं. 2, 5, 7, 12, 14, यादि, पृ. 382, 384-386, 388-3891
8. वही, लेज सं. 2, पु. 382 1
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2. कूलर, वही लेख सं. 26, पृ. 2061 4. हजर, वही लेख सं. 38-40, पृ. 188
6. देखो ग्राजे. इण्टि एण्टी, पुस्त. 6, पृ. 219
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