________________
[ 157 गुण है । प्राचीन और मध्यकालीन भारत के जीवन का यह प्रमुख लक्षण राजों की विरदावलियों में सुस्पष्ट है और इसी से शिलालेखों के अधिकांश भाग कि जो आधुनिक काल तक प्राप्त हुए हैं, भरे हैं, हम चाहे जितनी भी उदारता उन्हें देखें फिर भी हमें स्वीकार करना ही होता है कि ये सब प्रशस्तियां राज-कवियों या कृतज्ञ उपहार प्रापकों की उपज मात्र है जिनका लक्ष्य अपने प्रश्रयदाता का गौरवगान ही होता था न कि उसके राज्य का भावी संतति के लिए यथार्थ वर्णन प्रस्तुत करना। यह स्पष्ट है कि सफलताएं प्रतिरंजित की जाती थी और असफलताएं चुप्पी साध उपेक्षा कर दी जाती थीं । शिलालेखों और प्रशस्तियों के वक्तव्य बहुतांश में पूर्वग्रहों साक्षियों के ही हैं। और उनका हमें मूल्यांकन भी उसी दृष्टि से करना चाहिए यदि हम काल सुरक्षित ऐतिहासिक साक्षियों के इन कतिपय अंशों का सच्चा मूल्यांकन करना चाहते हैं। हाथीगुफा के शिलालेख में खारवेल की सफलताएं अतिरंजित हैं और सर आसुतोष भुकरजी के शब्दों में कहें तो "उड़ीसा के सम्राट खारवेल का कि जिसका नाम देश के इतिहास में से लुप्त हो कर एक दम विस्मृत ही हो गया था, हालांकि भारतवर्ष में ई. पूर्व की दूसरी सदी में ऐसा महा नगर कदाचित् ही कोई था कि जो उसके नाम ही से नहीं तो कम से कम उसकी शक्तिशाली सेना के दर्शन मात्र से ही कांपता था, पाषाण ही हमें पूर्ण ब्यौरे वार वृत्तांत प्रस्तुत करता है ।'
"I
जो भी हो, फिर भी इसमें संदेह नहीं है कि खारवेल अपने समय का एक प्रमुख व्यक्ति था और नैतिक दृष्टि से वह उतनी ऊंचाई पर पहुंच गया था कि वह सुरक्षित था, और जहां वह खड़ा था वहां से फिसलने का ही नहीं था। संक्षेप में वह अपने समय का महान् व्यक्ति था, जिसने अपनी महानता के अनेक प्रमाण उस समय दिए भी जब कि देव ने उसे भारतीय इतिहास की अव्यवस्थित और परीक्षात्मक घड़ी में इस महान् निर्देशन का अवसर प्रस्तुत किया।
1. अनु अध्याय 9, श्लो. 251; अध्याय 10 श्लो. 119 आदि ।
3
2. बिउमा पत्रिका, सं. 10, पृ. 8 1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org