Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 172
________________ मायड़ के पुत्र जागड़ ने उसका उद्धार कराया था। जैन दन्तकथानुसार यह राजा और जाव दोनों पालीताणा यात्रा के लिए गए और दोनों वहां रहे उस भर्ती में उनने शीघं की रक्षा के लिए बहुत मन खर्च किया था।" दक्षिण के साथ श्वेताम्बरों के सम्बन्ध के विषय में कालक की भांति ही पदालिप्त की भी गणना होना चाहिए । हरिभद्रसूरि की सम्यात्वसप्तति में लिखा है कि ये महान् प्राचार्य मान्यखेट गए थे । और इन सब स्थानों में 'सद्गुणों सम्पन्न जैनसंघ' थे। इस प्रकार पादलिप्त और कालक की दन्तकथाएं स्पष्टतः सूचित करती हैं कि ई. पूर्व पहली शती में दक्षिण में श्वेताम्बर जैनों की ही प्रमुखता थी। * सम्यात्वसप्तति के अनुसार प्रतिष्ठानपुर का राजा शालिवाहन पादलिप्त को 'सब बुरी धार्मिक पद्धतियों' का धन्त कर देने वाला कहता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि शालिवाहन भी पादलिप्त के ही सम्प्रदाय का याने श्वेताम्बर जैन होना चाहिए ।" विक्रम समय की इन सब बातों को विचार करते हुए कहा जा सकता है कि ये सब बहुतांश में पट्टावलियों पर ही आधारित है जो कि "बहुत कुछ काल्पनिक और सदिग्ध है और जनसंघ के आधुनिक गच्छों या उपभेदों द्वारा सुरक्षित रखी गई हैं।"" इसके सिवा इनका आधार वह साहित्य भी है जो उस काल का रचित है जिसकी हमारी प्रतिपाद्य प्रवधि से जरा भी मेल नहीं है। देखने की बात यह है कि इन सब संयोगों पर से क्या हम ऐसे निश्चय पर पा सकते हैं कि जैन दन्तकथा एकदम निराधार है और यह कि मध्यकालीन भारत के तथा कथित प्रख्यात वीरों में का यह विक्रमादित्य एकदम दन्तकथाओंों का ही राजा है ? [ 161 इस सम्बन्ध के भिन्न-भिन्न विद्वानों के मन्तव्यों की यथासम्भव सूक्ष्म परोक्ष एड्गर्टन ने अपने ग्रंथ 'विक्रम्स एडवेंचर्स" की प्रस्तावना में की है । उन मन्तव्यों के निरसन में प्रस्तुत किए इस विद्वान के तर्कों की पुनरावृत्ति किए बिना ही यह कहना पर्याप्त होगा कि विक्रमादित्य की बात अनेक व्यक्तियों के सम्बन्ध में निश्चय पूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा अभिलेखों या सिक्कों सेवारा निर्विवाद है । कोई भी कारण नहीं है कि "इस हिन्दू प्रार्थर राजा " - सच्चे राजा के लिए अनुकरणीय आदर्श की सत्यता में अविश्वास किया जाए जब कि उसका साधार "जैन और ब्राह्मण दोनों ही ग्रन्थों" में है। एड्गर्टन के शब्दों में कहा जा सकता है कि "ऐसा लगता है कि जैन युवप्रधानाचार्यों की सूचियों को अलग रख दे तो भी प्राचीन भारत की सकता है हालांकि उनकी ऐतिहासिकता 1. जावड़, सौराष्ट्र के एक व्यापारी ने चीन और पूर्वी द्वीप समूहों को एक जहाजी बेड़ा भेजा था जो बारह वर्ष बाद सुवर्ण से लदा हुया लौटा था जावद का पिता विक्रम का समकालीन वा...।" मजुमदार, वही, पृ. 65 1 देखो शत्रु जय माहात्म्य, सर्ग 14, गा. 104, 192 आदि, पृ. 808, 816 आदि; झवेरी, वही प्रस्तावना पृ. 19 । 2. देखो शत्रुज्य माहात्म्य सर्ग 14, गाथा 280 पृ. 824 3. मान्यसेट या मान्यक्षेत्र प्राज का मालाखेड़ा ही कहा जाता है जो कि निजाम राज्य में है । देखो ज्योग्राफिकल डिक्षिनेरी, पृ. 1261 यह मालाखेड़ा या मान्यखेट जहां पादलिप्तसूरि गए थे, परवर्ती सदियों में राजधानी रूप से प्रख्यात हो गया था कि जिनमें जैनधर्म के संरक्षक और मानने वाले राजा कुछ ही 4. यवत्वसप्तति श्लोक 96, 97 देखो मैसूर साकियालोजिकल रिपोर्ट 1923, पृ. 10-11 अधिकांश समय पादलिप्तसूरि मानलेटपुर में ही रहे थे।" झवेरी, वही, प्रस्ता. पृ. 10 देवो मैग्रारि 1923, पृ 11 भवेरी वही प्रस्ता. पृ. 11 5. सम्यक्त्वसप्तति गाथा 158 6. शार्पेटियर, वही, पृ. 1671 7. एड्गर्टन, वही, प्रस्ता. पृ. 58 आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only राष्ट्रकटों की नहीं थे । "जीवन का www.jainelibrary.org

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