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राजा की भयंकर शिरपीड़ा को शांत किया था प्रभावकचरित नामक ग्रन्थ में इस घटना का इन शब्दों में वर्णन किया गया है
' पादलिप्त ज्यों ही अपनी अंगुली उसके घुटने पर लगाते हैं कि तुरन्त ही राजा मुरण्ड की शिरोवेदना दूर हो जाती है।"
बैक्ट्रिया के सिथियन (शक) प्राक्रामकों के बाद यूथो पाए। जब ई. पहली सदी में इन यूचियों के प्रमुख कबीलों, कुषाण, ने तुर्किस्तान और बैक्ट्रिया सहित उत्तर-पश्चिम भारत तक अपना साम्राज्य विस्तार कर लिया तो यह कुषाण साम्राज्य भारत और चीन के बीच में शृंखला रूप हो गया और प्रापसी व्यवहार का एक सफल साधन भी वह बना जिसका परिणाम लाभप्रद ही हुआ। पिछले कुछ वर्षों की खोजों ने प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय संस्कृति, भारतीय भाषा और भारतीय प्रक्षर चीनी तुर्किस्तान में स्थापित हो गए थे । और ता. चि. महत्ता के शब्दों में फिर कहें तो चीनी तुर्किस्तान के गुहा मन्दिरों के चित्र कार्य में जैन विषयों का उपयोग किया गया है। भारतीय सामान्य इतिहास की इस रूपरेखा के बाद मथुरा के शिलालेखों की ओर हम पाएं पोर जैनधर्म के साथ उनके सम्बन्ध के महत्व की परीक्षा करे । कनिंथम के निम्न शब्दों की अपेक्षा उनका ऐतिहासिक महत्व दूसरा कोई भी अच्छी तरह से नहीं बता सकता है:-इन शिलालेखों से मिलने वाले तथ्य भारतीय प्राचीन इतिहास के लिए विशेष महत्व के हैं। इन सह लेखों का सामान्य अभिप्राय एक ही है याने अमुक व्यक्तियों द्वारा अपने धर्म की प्रतिष्ठार्थक लिए, और अपने एवम् अपने माता-पिताओं के लाभार्थं दिए दानों भेटों का अभिलेख करना। जहां शिलालेख केवल इस साधारण बात का ही विज्ञापन करता हो तो उसका कुछ महत्व नहीं होता, परन्तु जब इन मथुरा के अभिलेखों में, जैसा कि अधिकांश में देखा जाता है, दाताओं ने उस काल में राज्य करते राजा का नाम, दान देने की तिथि और सम्वत् दे दिए हैं. वहां ये नष्ट इतिहास के रूपरेखा पृष्ठों की वस्तुतः उतनी ही पूर्ति कर देते हैं। जो सीधी सूचना इनसे प्राप्त होती है, वह एक प्राचीन एवम् अति महत्व के युग की याने ईसवी सन् " के प्रारम्भ के कुछ ही पूर्व और परवर्ती काल की है जब कि, जैसा कि हम चीनी प्राधारों से जानते हैं, भण्डोसिथियनों ने समस्त उत्तर भारत को जीत लिया था हालांकि उनके विजित क्षेत्र का विस्तार बिल्कुल ही प्रज्ञात है । इसलिए इन उपलब्ध शिलालेखों का महत्व यह है कि हमें इनसे पता लगता है कि मथुरा पर स्थाई अधिकार सम्वत् 9 के कुछ ही पूर्व हो गया था जबकि झण्डो- सिथियन राजा कनिष्क उत्तर-पश्चिमी भारत वर्ष और पंजाब पर राज्य करता था ।"
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मथुरा के अनेक जैन शिलालेख कंकाली टीले से ही प्राप्त हुए हैं जो कि कटरा से आधी मील दूर दक्षिण में है। कटरा मथुरा के पुराने किले से पश्चिम की घोर एक मील पर है। यह कंकाली टोला बहुत फैला हुआ रहा हो ऐसा लगता है। इससे प्राप्त हुई सभी ग्राकार बड़ी से बड़ी औरउससे छोटी की मूर्तियों की सख्या को जेल टेकरी से प्राप्त बौद्ध मूर्तियों की संख्या हालांकि वे भी बहुत है फिर भी, नहीं पहुंची है । 4 आज जहां वह टीला है,
1. प्रभावक चरित, श्लोक 59 | देखो सम्यक्त्व - सप्तति, गाथा 62; मैश्रारि, 1923, वही और वही स्थान | 2. मथुरा के वध के शिलालेख भी नी घोर विषय में जैनों के शिलालेखों जैसे ही हैं पत्रिका (नई माला). सं. पू. 182 3. कनिधन, आसई, पुस्त. 3, पृ. 38-39 ।
देखो डासन, राएसो
4. देखो वही, पृ. 46 । "कंकाली टोला क्या तो मूर्तियों में और क्या शिलालेखों में बहुत ही उर्वर रहा है और
ये सब... विशुद्ध जैन स्मारक है। ऊंचाई की भूमि पर एक बड़ा जम्बू स्वामी का उत्सगित जैन मन्दिर है... वही, पृ. 191 यह मन्दिर चौरासी टीले के निकट है कि जो देखो वही पुस्त. 17 पू. 112 1
उस स्थान पर वार्षिक मेला लगा करता है... स्वयम् एक अन्य जैन स्थापत्य का स्थान है।"
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