Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 173
________________ 162 ] याने पट्टावलियों भारतीय इतिहास के अन्य साधनों जितनी ही सस्य और विश्वस्त हैं ऐसा कहना निःसन्देह अतिशयोक्तिक नहीं माना जाना चाहिए)...मुझे यह ज्ञात नहीं है कि जैनों के इतिवृत्तों को बिलकुल ही अमान्य कर देने का कोई भी निश्चित और सुस्पष्ट कारण है और यह सुस्पष्ट कह देने का कि विक्रम नाम का कोई राजा ई. पूर्व 57 वर्ष में हुआ ही नहीं था। क्या हम उस सदी का इतिहास पर्याप्त जानते हैं कि जिससे हम यह कह सकें कि मालवा को स्थानीय उन नामों में से किसी भी नाम के राजा ने कि जिनसे विक्रम पहचाना जाता है, मध्यभारत में अपना राज्य इतना व्यापक नहीं कर लिया होगा (हालांकि हिन्दू अतिशयोक्तियां उसे सार्वभौम चक्रवर्ती ही मानती हैं परन्तु वैसा सर्वभौम उसे स्वीकार करने की हमें जरा भी आवश्यकता नहीं है ?"। एड्गर्टन के सिवा अन्य विद्वान जैसे कि हूलर और टानी भी जैन इतिवृत्तों की ऐतिहासिकता की रक्षा करते हैं । डॉ. व्हूलर कहता है कि "विशेषरूप से यह स्वीकार करना ही चाहिए कि प्राचीन और हाल की वर्णनात्मक कथानों की व्यक्तियां यथार्थ ही ऐतिहासिक हैं। यद्यपि कभी कभी ऐसा भी हना है कि कोई व्यक्ति जिम समय वह हुमा उससे पूर्व अथवा परवर्ती काल में रख दी गई हो और उसके विषय में कितनी ही एकदम असंभवसी बातें कह दी गई है, फिर भी ऐसी बात कोई नहीं है कि जिससे हम निश्चयता से यह कह सकें कि इन वृत्तों में उल्लिखित व्यक्ति एकदम काल्पनिक ही है। पक्षान्तर में, प्रत्येक प्राप्त होने वाला नया शिलालेख प्रत्येक प्राचीन पुस्तक संग्रह और प्रत्येक यथार्थतः ऐतिहासिक ग्रन्थ जो प्रकाश में आता है, उनमें वरिणत एक या दूसरे व्यक्ति के अस्तित्व का समर्थन ही मिलता है। इसी प्रकार उनकी दी हुई तिथिया भी हमारी विशेष सावधानी की अपेक्षा रखती हैं। इस वर्ग के दो ग्रन्थों से उनका जब समर्थन हो जो कि एक दूसरे से बिलकुल ही स्वतन्त्र हैं तो बिना हिचकिचाहट के उन्हें ऐतिहासिकरूप से सत्य मान लेना ही उचित है।" डॉ. स्टेन कोनेव तो इससे भी बढ़कर कहता है कि "विक्रम की दन्तकथाओं के प्रति अब विद्वान न्यून उपेक्षा रखने वाले होते जा रहे हैं। वह महान् सन्त 'कालकाचार्य-कथानक' को और उसके अजमानादि की बातों का उचित ही स्वागत करता है । उसके शब्द ही इस सम्बन्ध में उद्धृत करना ठीक है। वह कहता है कि "मैं जानता हूं कि अनेक यूरोपीयन विद्वान, यद्यपि उनमें से अधिकांश भारतीय दन्तकथा को ससम्मान वर्णन करते हैं, फिर भी सामान्यतया उनका कोई विचार ही नहीं करते हैं । परन्तु ऐसा उनके करने का कारण मेरी समझ में ही नहीं आता है। कालकाचार्य-कथानक के वृत्तांत को अविश्वास हम करें इसका मुझे कोई भी कारण नहीं मालूम देता है । मैं ने अन्यत्र यह सिद्ध किया है कि प्राचीन काल में मालवा में राजा विक्रमादित्य का होना मानने के हमारे सामने अनेक कारण हैं," अादि ।' इस प्रकार शार्पटियर, एड्गर्टन, हूलर, टानी और स्टेन कोनोव के प्रमाणानुसार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जनों का दन्तकथा साहित्य ऐतिहासिक माने जाने का यथार्थतः अधिकारी है, और विक्रम और उसके सम्वत् की वास्तविकता अस्वीकृत नहीं की जानी चाहिए। विसेंट स्मिथ का आधुनिकतम मत भी कुछ ऐसा ही है क्योंकि वह कहता है कि "ऐसा कोई राजा हा हो, यह सम्भव है। फिर, जैसा कि हम पहले ही देख आए हैं, अवन्ती अथवा मालवा का राज्य महावीर के दिनों में भी जैनधर्म का केन्द्र रहा था। मौर्यों के समय में वह और भी अधिकाधिक प्रागे पाया और अन्त में उनके अन्तिम दिनों के पश्चात जैन जैसे धीरे-धीरे मगध राज्य 1. वही पृ.64 । 2. म्हूलर, उबेर डास लेबेन ड्रेसजैन-मूकस हेमचन्द्र पृ. 6। देखो टानी, वही, प्रस्ता. पृ. 6-7; वही, पृ. 5 प्रादि । 3.कोनोव, वही, पृ. 29414.स्मिथ माक्सफर्ड हिस्ट्री प्राफ इण्डिया, 1511 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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