Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

Previous | Next

Page 176
________________ [ 165 वहां किसी समय दो भव्य मन्दिर रहे होंगे। अनेक लेख तो खड़ी और बैठी नग्न मूर्तियों के पादपीठ पर खुदे हुए हैं, जिनमें से कुछ मूर्तियां चोमुखी यानि चतुर्मुख हैं। डॉ. हूंलरे के अनुसार नीचे का लेख उनमें प्राचीनतम है। समनस माहरखितास प्रांतेवासिस वछीपुत्रस सावकास (स्रावकास) उत्तरदासक पासादोतोरनं ।। "महारखित (माघरक्षित) मुनि के शिष्य, वछी के पुत्र (वात्सी माता पौर) श्रावक उत्तरदासक (उत्तरदासक) के मन्दिर के उपयोग के लिए प्रासाद तोरण (भेट)।"' एक दम प्राचीन अक्षर और अन्य भाषायी विशिष्टतानों के कारण वह विद्वान मानता है कि यह लेख इसवीं पूर्व दूसरी शती के मध्य का होना चाहिए। इसके परवर्ती काल में वे दो शिलालेख पाते हैं कि जिनका सम्बन्ध मथुरा के सत्रपों से है। इनमें से एक तो पूर्ण है और दूसरा 'भा' से प्रारम्भ होने वाले किसी क्षत्रप महाराज का नाम मात्र देता है। पहला शिलालेख महाक्षत्रप शोडास के 42वें वर्ष और हेमन्त ऋतु के दूसरे महीने का है। इसमें पामोहिनी नाम की किसी स्त्री के पुजा की शिला उत्सगित कराए जाने का उल्लेख है । इस लेख में किस सम्वत् का उपयोग किया गया है, यह स्पष्ट नहीं है। ___ कंकाली टीले के इसी राजा के नाम वाले दूसरे शिलालेख पर से महाक्षत्रप शोडास का पता सबसे पहले कनिधम ने खोज निकाला था । अाजेज (Azes) के सिक्कों से मिलते जुलते इसके सिक्कों पर से उस विद्वान ने इसका समय लगभग 80-57 ई. पूर्व माना था और यह अनुमान लगाया था कि वह मथुरा के दूसरे क्षत्रप राजुबल अथवा रंजुबल का ही पुत्र हो। इस अनुमान का समर्थन मथुरा के सिंहध्वज से भी होता है कि शोडाम को छत्रव (क्षत्रप) और महाछत्रव राजूल (रंजुदुल) का पुत्र कहता है। प्रो. रेप्सन कहता है कि “महा क्षत्रप राजूल, जिसका दूसरे लेखों में राजुबल नाम भी मिलता है, निःसंदेह ही वह रंजुबुल है कि जिसने पूर्व पंजाब में राज्य करते हए यवनराज स्ट्रेटो । म और स्ट्रेटोश्य की नकल शत्रप और माहशत्रप नाम से सिक्के पाड़े थे । वह शोडास का पिता था कि जिसके समय में इस स्मारक का निर्माण हुअा था। इसके बाद मथुरा की अमोहिनीवाली शिला में शोडास स्वयम् महा क्षत्रप रूप से उल्लिखित है और उसका समय 42 वें वर्ष की हेमन्त ऋतु का दूसरा महीना है।" शिलालेख में किस संवत् का उल्लेख हया है इस सम्बन्ध में मत विभिन्नता है; परन्तु जिस शैली से इसमें तिथि दी गई है उससे यह बहुत ही सम्भव प्रतीत होता है कि उसमें किसी भारतीय संवत् का ही प्रयोग हुआ है।" यदि यह मान्य हो, जैसा कि सम्भव लगता है, तो वह विक्रम संवत् ही (ई.पूर्व 57) है, और इसलिए शिलालेख 1. व्हूलर, एपी. इण्डि., पुस्त. 2, लेख सं. 1, पृ. 198-199। 2. वही, पृ. 1951 3. देखो हूलर, एपी, इण्डि., पुस्त. 2, लेख सं. 3, पृ. 1991 4. देखो वही, लेख 2, पृ. 1991 5. देखो कनिधम, वही, पृ. 30, लेख सं. 1 । 6. देखो वही, पृ. 40-41 | "रंजुल, रजुवुल या राजूला का परिचय शिलालेखों और सिक्कों दोनों से ही मिलता है। मथुरा के निकटस्थ मोरा के ब्रह्मी अक्षरों के एक शिलालेख में उसे महाक्षत्रप कहा गया है। परन्तु ग्रीक दन्तकथा उसके कुछ सिक्कों पर उसे 'राजों का राजा, रक्षक' कहती हुई यह बताती है कि सम्भवतः उसने अपनी स्वतन्त्र सत्ता घोषित कर दी थी।" -रायचौधरी, वही, प. 283 । 7. वही। 8. रेप्सन, कहिइं, भाग 1, पृ. 575 । 9. देखो रायचौधरी, वही, पृ. 283 प्रादि: स्मिथ, वही, पृ. 241, टि.1। 10. देखों रेप्सन, वही, पृ. 575-5761 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248