Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 171
________________ 160 ] हो तो दो दृष्टियों से महत्व की है । एक तो वह दक्षिण में श्वेताम्बरों का सम्बन्ध बताती है और दूसरे दक्षिा के ऐसे जैन राजा का वह उल्लेख करती है कि जिसका कालकाचार्य जैसे महान् गुरू तक इतना मान रखते थे और जिसका पज्जूषण जैसे महान् जैन धार्मिक पर्व की तिथि परिवर्तन कराने में प्रमुख भाग था।' गर्दीमल्ल के उत्तराधिकारी विक्रमादित्य का विचार करते हुए जनों के उल्लेखों से हमें पता चलता है कि जन साहित्य के इतिहास में प्रखर ज्योतिधर श्री सिद्धसेन दिवाकर उसके दरबार में उस समय रहते थे और उन्हीं ने महान् राजा विक्रम को और श्रीमती स्टीवन्सन के अनुसार 'कुमारपुर के राजा' देवपाल को भी । जैनधर्मी बनाया था, इसी समय के लगभग दो और घटनाएं भी घटित हुई कही जाती हैं। पहली तो यह कि मरूच में जैन साधू स्नामक वादी आर्य खपुट द्वारा बौद्धों की वाद में हार । और दूसरी यह कि जैनों के परम पवित्र श'तुजय तीर्थ के पास पालीतारणा नगर की स्थापन यावसाहर । खरतरगच्छ पट्टावली कहती है कि महावीर के पाट से सोलहवें श्री वनस्वामी (वी.सं. 496-584) ने दक्षिण की ओर बौद्धों के प्रदेश में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया था । पालीतारणा स्थापना की दूसरी घटना का सम्बन्ध पादलिप्ताचार्य से है जो कि विक्रम महान् को समकालिक थे ।' जनों के अनुसार पादलिप्ताचार्य को आकाशगामिनी विद्या सिद्ध थी। इस पर टिपण करते हुए श्रीमती स्टीवन्सन कहती है कि "शत्रुजय की स्थापना एक जैनाचार्य ने की थी कि जिनमें आकाशगामिनी विद्या थी और जिनके एक शिष्य कोसुवर्णसिद्धि प्राप्त थी। इन दो शक्तियों के प्रभाव से वहां संसार का अद्वितीय मन्दिर नगर बस गया।" इस तीर्थ के सम्बन्ध में खरतरगच्छ पट्टावली में कहा है कि वीरात् 570 में वह जीर्ण हो गया था और विक्रम के समकालिक 1. राजा सातयान पक्का जैन था, यह कालकाचार्य-कथा (गाथा 50-54, पृ. 4-5) से यद्यपि स्पष्ट है परन्तु वह कौन था, इसका कुछ भी पता नहीं है । प्रतिष्ठानपुर सातवाहनों की पश्चिमी राजधानी थी, इससे हम अवगत हैं । जैन दन्तकथा इस वंश के राजा हल को भी जनी ही कहती है । देलो ग्लसन्यप डेर जैनिस्मस, पृ. 533; झवेरी, निर्वाणकलिका प्रस्तावना पृ. 11 । 2. देखो, श्रीमती स्टीवन्सन, वही और वही स्थान । 3. उस (सिद्धसेन दिवाकर) ने विक्रमादित्य को वीरात 470 में जैनधर्मी बनाया था। -"क्लाट, वही, पृ. 247 । देखो वही, पृ. 251; एड्गटन, वही, पृ. 251 आदि; श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 77; टानी, वही, पृ. 116 आदि; मैसूर आकियालोजिकल सर्वे, 1923, पृ. 101 4. विद्यासिद्धा प्रार्यखपुटा प्राचार्या:...मगुकच्छे...बुद्धो निर्गतः, पादयोः पतितः । -पावश्यक सूत्र पृ. 411-4121 देखो झवेरी, वही और वही स्थान। 5. देखो वही, प्रस्ता. पृ. 19%; श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 77-78 । 6. देखो क्लाट, यही, पृ. 247; हेमचन्द्र, परिशिष्टपर्वन्, सर्ग 12, श्लोक 311, 388; आवश्यक सूत्र, पृ. 295 । 7. क्लाट, वही, पृ. 247, 251 । “(पादलिप्त) पालितसूरि पालीतारणा को नींव से निःसन्देह सम्बन्धित हैं। झवेरी, वही, वही स्थान। 8. पादलिप्त ने पैरों में प्रौषधि लगाकर उड़ने की यह गगनवाहिनी विद्या प्राप्त की थी और वे रोज शत्रुजय, गिरनार या रेवतगिरि सहित पांच तीर्थो की यात्रा किया करते थे । -वही प्रस्ता. पृ. 11। देखो टानी, वही, पृ. 1951 १.श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 78, टिप्पण.1। "नागार्जुन...पादलिप्तसूरि का शिष्य...स्वर्णसिद्धि प्राप्त करने को प्रयत्नशील था..मादि -झवेरी, वही, प्रस्ता:पृ.12 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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