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और सेना का अवरोध नहीं किया गया है, वह जिसने प्रत्येक मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया है, वह जो प्रत्येक धर्म का सम्मान करता है, वह जो विशिष्ट गुणों के कारण कुशल है...।"] .
यहां कलिंग का महान् सम्राट, भिक्षुराज खारवेल और जैनधर्म के महान् समर्थक राजों में से एक की आत्मकथा समाप्त हो जाती है। प्रथम पंक्ति में ही किया अर्हतों और सिद्धों का मंगलाचरण, जैन श्रमणों के लिए निर्मित मन्दिर और गुफाएं, याप प्राचार्यों को भूमि एवम् अन्य आवश्यक पदार्थों का दान, राजा नंद द्वारा अपहृत कलिंगजिन प्रतिमा की पुनः प्राप्ति आदि सब बातें प्रतीत कराती हैं कि खारवेल जैन था, ई. पूर्व 183 में चौबीस वर्ष की अवस्था में वह राज्यगद्दी पर पाया था। बत्तीस वर्ष की अवस्था में उसने मगध पर पहली और 36 वर्ष की अवस्था में दूसरी चढ़ाई की थी । श्री जायसवाल के अनुसार उसकी मृत्यु संभवतः ई. पूर्व 152 में हुई थी।"
वह एक ऐसा सम्राट था कि जिसके वंश के विषय में हम कुछ भी नहीं जानते हैं और जिसकी जीवनलीला के विषय में इस शिलालेख के कि जिसके ऊपर काल का प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सका है, सिवा अन्य कोई भी साधन हमें प्राप्त नहीं है। फिर भी हम इतना तो यहाँ अवश्य ही कहेंगे कि वह कोई पाश्चर्य की बात नहीं होगी कि किसी सुदिन कोई पुरातत्वज्ञ विद्वान को 'राजर्षियों की परम्परा के इस प्रख्यात वंशज या उत्तराधिकारी' धर्मराज के विषय में इससे अच्छा और अधिक विवरण वाला अभिलेख प्राप्त ही हो जाए। यह निःसंदेह ही आश्चर्य है, ही नहीं अविश्वासनीय है कि जैनों के पास ऐसे व्यक्ति के विषय में कहने का कुछ भी नहीं है कि जिसका जैन इतिहास में योगदान किसी से भी कम नहीं था।
खारवेल के राज्य का परिणाम और उसके सिंहासनासीन होने के पश्चात् उसकी की हुई नई विजयों का परिचय देनेवाला ऐतिहासिक अथवा अन्य कोई भी समकालिक अभिलेख हमें उपलब्ध नहीं है । यह तो हमसे दूसरी ही दुनियां की उस ध्वनि जैसा ही है कि जो हमें कहती है कि प्रत प्राचीन काल में कलिंग का खारवेल नाम का एक महान् सम्राट था और उसको तुम्हें मान लेना चाहिए और उसके स्मृति चिन्ह रूप में हाथीगुफा के शिलालेख से मिलने वाली सूचनाओं के आधार पर ही समसामयिक ऐतिहासिक व्यक्तियों में से एक उसे भी मान लेना चाहिए।
शिलालेख कहता है कि उसने उत्तर में महान् सुग राजा पुष्यमित्र को हराया था । यह समाचार सुन कर इण्डो-ग्रीक राजा डिमेट्रियस मथुरा का घेरा उठा कर अपने देश को लौट गया था। उसने दक्षिण में सातकर्णी और उसके करद राज्यों को आधीन किया और उसकी इन विजयों की कथा सुन कर धुर दक्षिणांत के पाण्ड्य राजा ने उसे बहुत और अमूल्य भेटें भेजी थीं।
___ तुलना के साधनों के अभाव में इस शिलालेख की कौनसी बात स्वीकार की जाए और कौन नहीं, अथवा उसे किस रूप में समझी जाए, यह एक बड़ी कठिनाई है। यह कठिनाई उस समय और भी जटिल हो जाती है जब कि ऐसे सैनिक अभियान जिनका इस शिलालेख में प्रचुर प्रमाण मिलता है, ऐसे समाज में कि जिसमें युद्ध एक व्यवसाय है और उस व्यवसायी जाति का परम्परागत सदस्य सैनिक है, एक सामान्य नियम हो जाता है और जहां अपने राज्य की सीमा विस्तार करने की आकांक्षा, जैसा कि हमारी स्मृतियां कहती है, ही राजत्व का एक प्रमुख
1. खेमराजा स बढराजा...अनुभवतो...कलाणानि सव-पासंड-पूजको...खारवेलसिरि । बिउप्रा पत्रिका, सं. 4,
पृ. 403 और सं. 13, पृ. 236 । 2.बिउप्रा पत्रिका, सं. 13, पृ. 243 ।
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