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था।"1 यह प्रस्तुत करते हुए उक्त विद्वान कहता है कि "अशोक के काश्मीर में जैनधर्म प्रचार की बात मुसलमान ग्रन्थकार ही केवल नहीं कहते हैं अपितु राजतरंगिणी में भी यह स्पष्ट स्वीकार करने में पाई है । यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से यद्यपि ई. सन् 1148 का रचित माना जाता है। फिर भी उसके ऐतिहासिक विभाग का अाधार पद्ममिहिर और श्री छविल्लाकार के अधिक प्राचीन उल्लेख ही हैं।"2
इतना होने पर भी विद्वान पण्डित स्वीकार करता है कि अपने सारे राज्यकाल में अशोक आजीवन जैन नहीं रहा था। ऐसा होता तो जैन अवश्य ही उसको अपना प्रतिभाशाली धर्म-संरक्षक न्यायतः घोषित किए बिना कदापि नहीं रहते। एडवर्ड टामस के अनुसार धीरे धीरे वह बदलता ही गया और अन्त में वह बुद्धधर्म की पोर पूर्णतया झक ही गया । फिर भी अशोक की बौद्धधर्म स्वीकार कर लेने की बात सहज में मानी जा सके ऐसी तो नहीं ही है जो कुछ भी कहा जा सकता है वह इतना ही कि समय बीतते अशोक बुद्ध के उपदेश से प्राकषित होता गया था। परन्तु साम्प्रदायिक बाड़े में नहीं रहते हुए वह सर्वदर्शन मान्य नैतिक नियमों का और सिद्धांत रूप धर्म का प्रजा में प्रचार करने लगा। यद्यपि महामान्य हेरास ठीक ही कहते हैं कि 'पवित्रता और जीवन की शाश्वता के जैन सिद्धांतों का उस पर खास प्रभाव तो पड़ा ही था ।
अशोक बौद्धधर्मी नहीं था यह कोई नई बात ही नहीं कही जा रही है । विल्सन", मैक्फेल' फ्लीट: मेनाहन", और पादरी हेरास10 तो हम से पूर्व ही यह कह चुके हैं । डा. कन भी कहता है कि 'कुछ अपवादों
1. देखो टामस, एडवर्ड, वही, पृ. 30-11 | "जब कनक के काका के पुत्र अशोक को उत्तराधिकार मिला, उसने ब्राह्मगधर्म को उठा दिया और जैनधर्म को प्रतिष्ठापित कर दिया।" -ज्य रेट, पाइन-ए-अकबरी, भाग 2,
पृ. 382; विल्सन, एशियाटिक रिसर्चेज, सं. 15, पृ. 10।। 2. टामस, ऐड्वर्ड, वही, पृ. 32 । देखो विलफोर्ड, एशियाटिक चिज, सं. 9, पृ. 96-97 । 3. टामस, एडवर्ड, वही, पृ. 24 4. वही। 5. हेरास, वही, पृ. 272 । देखो राक एडिक्टस (1, बी)।, (3, डी), (4, सी), (9, सी), प्रादि; हल्टज, कारपस ___ इंस्क्रिप्शनम इण्डिकारम, पुस्त 1, पृ. 215,18, 19, आदि (नया संस्करण)। 6. प्रथमतया तो, शिलालेखों के तथाकथित मुख्य लक्ष्य याने बौद्धधर्म में परिवर्तन के विषय में यह शंका करना
अकारण नहीं होगा कि वे इस प्रकार के किसी लक्ष्य विशेष से ही प्रसिद्ध किए गए थे, और यह कि उनका
बौद्धधर्म से कुछ भी सम्बन्ध है ।' विल्सन, राए पो पत्रिका, सं. 12, पृ. 236, देखो वही, पृ. 250 । 7. देखो मैकफेल, शोक, पृ. 48 । धर्म शब्द चलित अर्थ में ही यही प्रयुक्त है । प्राज्ञामों में वौद्धधर्म का पर्यायवाची नहीं है, परन्तु सामान्य दया का ही कि जो अशोक अपनी सब प्रजा को चाहे वह कोई भी धर्म मानती
हो, पालन कराना चाहता था।' वही। 8. देखो फलीट, राएसो, पत्रिका, 1908, पृ. 491-492 । 'पहाड़ों और स्तम्भों दोनों ही प्राज्ञालेखों का प्रत्यक्ष लक्ष्य बौद्ध या किसी धर्म विशेष का प्रचार करना नहीं था, अपितु अशोक का निश्चय घोषित करना था कि शासन नीति और प्रम से एक धर्मराजा के कर्तव्यानुसार चलाया जाए और सभी धर्मों के विश्वास का सम्मान करते हुए चलाया जाए ।...' आदि । वही, पृ. 492 । 9. अशोक के अधिकांश पहाड़ों और स्तम्भों के प्राज्ञालेखों के सिद्धान्त एकान्त बौद्धधर्म ही नहीं कहे जा सकते हैं।
ग्रादि । मेनाहन, अर्ली हिस्ट्री प्राफ बेंगाल, पृ. 214।। 10. चौथी, पांचवीं और छठी सदी के बौद्ध इतिवृत्तों ने अनेक विद्वानों को भ्रमित कर दिया है...। उनमें बौद्धों के
गहन सिद्धांतों का जरा भी उल्लेख नहीं है । हेरास, वही, पृ. 255, 271 ।
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