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कुछ भी नहीं किया वह अवश्य ही महान् पुष्यमित्र या महान् शालिवाहन के समक्ष खड़ा हो सकता है. परन्तु जैसा संकेत उसके दूसरे और चौथे वर्ष के अभियानों से मिलता है, यदि उसकी प्राकांक्षा प्रतिष्ठान के प्रांध्र राज से सार्वभौम सत्ता छीनने की थी तो उसके ये अभियान विफल ही कहे जाएंगे। वैसा करना उसके लिए सम्भव नहीं था और शिलालेख के उल्लेख का ऐसा अर्थ भी नहीं है ।
राज्यकाल के पांचवें वर्ष में खारवेल उस नहर को जो राजा नन्द के 103 वें वर्ष में खोदी गई थी और तनसुलिय या तोसली के राजमार्ग को कलिंग के नगर तक ले पाया।* इस प्रोर अनेक अन्य निर्मूल वर्णनों और वर्षकों से जो कि शिलालेख में हैं, फ्लीट स्मिथ आदि जैसे विद्वानों को यह अनुमान करने को प्रेरित किया कि उड़ीसा में सावधानी से इतिहास रखा जाता था और यह भी कि बिना किसी सम्वत् गणना के इन सत्र लम्बी अवधियों का हिसाब रमना सम्भव नहीं हो सकता था।" जिस सम्बत् से समय की गणना यहां की गई है वह नन्द सम्बत् था, यह लेख के पाठ से एक दम स्पष्ट है। यह इतना स्वाभाविक है कि कोई भी राजा विशेष के राज्य-काल से इतने लम्बे समयान्तरों की स्मृति रखने का विचार ही नहीं कर सकता है यदि उस राजा का वह सम्वत् लगातार प्रयुक्त होता नहीं रहा हो। जायसवाल के धनुसार यह राजा सिवा राजा नन्द वर्धन के दूसरा प्रोर हो ही नहीं सकता है कि जिसकी तिथी उनकी गणनानुसार ई. पूर्व 450 के लगभग ग्राती है । 1 जैसा कि हम पहले देख चुके हैं इस शिलालेख में ऐसा कोई ऐतिहासिक श्राधार या कोई अन्य संकेत नहीं है कि जिससे हम उक्त पहचान कर सकते हैं। जायसवाल का विश्वास है कि एलबरूनी निर्दिष्ट श्रीहर्ष सम्वत् के साथ यह सम्वत् मिलता हुया है और इसलिए जो स्थानीय दन्तकथा एलबरूनी ने हर्ष के विलय में दी है, उसी को जायसवाल ने नन्दी वर्धन" के साथ मूल से जोड़ दी है। इस लेखक की दृष्टि में बतान से पहचान करने की यहां कोई भी समुचित कारण नहीं है। यह कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है कि सम्वत् का प्रारम्भ जैनों का प्रथम नन्द अथवा पुराणों के महापद्म नन्द से हुआ हो। जो कुछ भी हमने पुराणों और प्राचीन वर्णनों से नन्दों के विषय में जाना है, उससे यह निश्चित है कि वह अपने नाम का सम्वत् प्रवर्तन करने जितना महान् अवश्य ही था। इससे हम उक्त सम्वत् को बिना किसी जोम के उसके द्वारा चलाया हुआ मान सकते हैं मतः छठी पंक्ति में निर्दिष्ट नहर की तिथी ई. पूर्व 320-307 स्वतः होगी जबकि हम महावीर निर्माण की तिथि ई. पूर्व 480-467 लेते हैं।
सातवीं पंक्ति में जो कुछ लिखा है उससे हमें मालूम होता है कि खारवेल की रानी वज्रकुल' की थी, और जायसवाल कहते हैं कि 'रानी का नाम या तो लेख में दिया नहीं गया है अथवा वह 'घुषित (ता) है ।" यह उसके राज्यकाल का सातवां वर्ष था और ऐसा मालूम होता है कि इस समय उसको पुषरूप राजकुमार प्राप्त हो
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गया था । "
1. यह मानना न्याय संगत होगा कि खारवेल की राजधानी तोसली थी जिसकी पड़ोस में हाथीगुफा और प्राची नदी पाए जाते हैं। हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार सोसली व्युत्पत्ति से होली हो सकता है जहां कि कलिंग प्राशालेख का एक सम्प्रदाय बाज भी है। स्मिथ वही, पृ. 546
2. देखो बिउप्रा पत्रिका सं. 4. पृ. 399
3. देखो फलीट, राएसो पत्रिका, 1910, पृ. 828; स्मिथ, वही, पृ. 545 4. बिउप्रा पत्रिका, सं. 13, पृ. 240 पत्रिका सं. 13, पृ. 240
5. देखो सचाउ, एलवरुनीज इण्डिया, भाग 2, पृ. 5 1 6. देखो बिउप्रा 7. वजिर-घर वंति घुसितघरिनि । - वही, पृ. 227 । डा. के. आयंगर के
अनुसार यह वज्रवंश ही प्राचीन एवं
प्रमुख वंश हैं जो गंगा के इस घोर के बंगाल का स्वामी था ।-सम कांटीब्यूशन्स ग्राफ साउथ इण्डिया टू इण्डियन RAGE 39 12 18. बिउप्रा पत्रिका, स. 13, प्र. 227
9. ... । कमार, प्रादि-वही ।
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