Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 148
________________ [ 137 विद्वान पण्डितों का यही विश्वास था कि इस लेख की 16वीं पंक्ति में मौर्य युग का उल्लेख था और वही कलिंग इतिहास के इस महत्व के युग की तिथि निर्णय का एक मात्र आधार भी । श्री जायसवाल ने जो कि इस सिद्धांत इस लेख का लिथोग्राफ कनिधम का किया हुअा हम फिर कारपस इंस्क्रिप्शन इण्डिकारम् पुस्त 1 (1877), प. 27 आदि, 88-101, 132 आदि और फलक 17 में देखते हैं। परन्तु ऐसा लगता है कि प्रिस्येप के विवेचन ने पूर्व विद्याविदों का ध्यान इसकी उपयोगिता और ऐतिहासिक मूल्य की ओर आकर्षित किया। राजेन्द्र लाल मित्र ने उसके अनुवाद और प्रतिलिपि की नकल की और संशोधित रूप में उसे अपने महान् ग्रन्थ "दी एण्टीक्विटीज प्राफ उरीसा" के प. 16 प्रादि में सन् 18880 में हुबहु प्रतिलिपि के साथ प्रकाशित किया । उसके अनुसार इस शिलालेख की तिथि ई. पूर्व 416-316 के बीच में कहीं भी होना चाहिए । डा. मित्र के कुछ ही वर्षों के बाद स्व. पं. भगवानलाल इन्द्रजी ने इस महत्वपूर्ण शिलालेख का सबसे पहला कामचलाऊ संस्करण छटी इन्टरनेशनल कांग्रेस प्राफ मोरियन्टलिस्ट की विवरण-पत्रिका में जो कि लीडन (हालेण्ड) में सन् 1885 में हुई थी, प्रकाशित किया था और उसके भनुमार इसकी तिथि मौयं सम्वत् 165 अर्थात् ई. पूर्व 157 निश्चित हुई । (Actes Sia. Conar. Dr. aleide, pt. iii, sec. ii pp. 152-177 and date. इसके पश्चात् ब्हलर ने सन् 1895 और 1898 में अपने ग्रन्थ 'इण्डियन स्टडीज' संख्या 3, पृ. 13 और ग्रंथ 'मान दी प्रोरिजन ग्राफ दी इण्डियन ब्राह्मी एल्फाबैट' पृ. 13 आदि में क्रमश: विचार किया था, परन्तु उसने कुछ अशुद्धियों की शुद्धि का ही उसमें प्रस्ताव किया था। स्वर्गी पण्डित जी की तिथि-निर्णय, लेख की 16वीं पंक्ति के किसी मौर्यसम्बत् के उल्लेख मात्र से किया हमा, विसेंट स्मिथ, काशीप्रसाद जायसवाल, राखालदास बैनरजी और अन्य पुरातत्वज्ञों की आधुनिक सम्प्रदायवादियों द्वारा प्रभी तक ते स्वीकृत ही था। परन्तु फ्लीट और उसके बाद कुछ अन्य विद्वानों ने उक्त पंक्ति के इस प्रकार वाचन का विरोध किया हालांकि फ्लीट ने यह भी स्वीकार किया कि स्व. पं. भगवानलाल इन्द्रजी के वाचन के विरुद्ध एक भी आवाज तब तक नहीं उठी थी। (देखो स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया, 4 था संस्करण, पृ. 44 टिप्पण 2 और राएसो, पत्रिका, 1918, पृ. 544 प्रादि; जायसवाल, बिउप्रा पत्रिका, सं. 1 पृ. 80 टिप्पण 55, सं. 3, पृ. 425-485, सं. 4, पृ. 364 प्रादि; बैनरजी, रा. दा., बिउप्रा पत्रिका सं. 3, पृ. 486; डुब्यूइल, ऐशेंट हिस्ट्री ग्राफ दी ड्यकन पृ. 12; जिनविजय, प्राचीन जैन लेख संग्रह, भाग 1, जो सारा ही खारवेल के विषय में विचार करता है और जयसवाल सम्प्रदाय से सहमत है । और कोनोव, पाकियालोजीकल सर्वे आफ इण्डिया, 1905-1906, पृ. 166 । इसके अनुसार लेख में मौर्य-युग की ही तिथि है।) इस ग्रन्थ की समीक्षा करते हुए राएसो पत्रिका, 1910, पृ. 242 प्रादि वाले अपने प्रथम टिप्पण में डा. फ्लीट कहता है कि डॉ. कोनोव अपनी कैफियत में खारवेल के हाथीगुफा के शिलालेख का उल्लेख करता है और प्रसंगवश कहता है कि इसकी तिथि मौर्य सम्वत् 165 है । "हम इस अवसर पर यह कह देना चाहते हैं कि यह गलत बात है और इसका 16वीं पंक्ति के भगवानलाल इन्द्रजी के वाचन के सिवा कोई भी आधार नहीं है।" अब हम श्री फ्लीट एवम् उन्हीं के मत के अन्य विद्वानों का विचार करें। ई. 1910 में प्रो. एच. ल्यूडर्स ने एपीग्राफिका इण्डिका, सं. 10 में ल्यडर्स सूची सं. 1345 के पृ. 160 में इस शिलालेख का संक्षेप प्रकाशित किया और कहा कि इसमें कोई भी तिथि नहीं है । इसके पश्चात् स्व. डॉ. फ्लीट ने राएसो पत्रिका. 1910 पृ. 242 प्रादि में एक टिप्पण और पृ. 824 आदि में दूसरा टिप्पर लिख प्रकाशित किया । जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं डॉ. फ्लीट को इस शिलालेख में मौर्य सम्वत् की कोई तिथि होने के विषय में सन्देह था । ही उनने इन टिप्पणों में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि लेख की 16वीं पंक्ति को अंश में इस प्रकार की कोई भी तिथि नहीं है। परन्तु पक्षान्तर में वह जैनागमों के किसी एक पाठ का ही उल्लेख करता है कि जो मौर्यकाल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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