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हाथीगुफा का विचार करें। यह एक प्राकृतिक गुफा है जिसे कलाविधान ने न तो कुछ विस्तृत हो किया है और न सुधारा ही है । यह गुफा उदयगिरी टेकरी के दक्षिणी मुंह पर है जो स्वयम् उड़ीसा के पुरी जिले में भुवनेश्वर से लगभग तीन मील की दूरी पर खण्ड गिरि नाम की पहाड़ियों की निम्न श्रेणी का उत्तरीय श्रंश है । कला और स्थापत्य की दृष्टि से महत्व की नहीं होते हुए भी उस बस्ती की गुफा में सर्व प्रमुख यह इसलिए है कि कलिंग के सम्राट की आत्मजीवनी का उस "गुफा के शिखर" पर एक बड़ा शिलालेख है ।"
यह लेख कुछ तो अगले भाग पर और कुछ गुफा की छत पर खोदा हुआ है। ई. पूर्व 2 री सदी के भारतवर्ष के उस इतिहास पर इससे बहुत ही प्रकाश पड़ता है "जब कि चन्द्रगुप्त और अशोक का साम्राज्य विनाश हो चुका था, और राज्य अपहर्ता पुष्यमित्र मौर्य साम्राज्य के श्रंश पर राज्य कर रहा था एवम् दक्षिण भारत के प्रांध्र शक्ति संचय कर उत्तर की ओर बढ़ श्राए थे यहां तक कि मालवा को मी कदाचित् उनने विजय कर लिया था ।" "
अभिलेख जैन शैली से महंतों और सिद्धों की प्रार्थना से प्रारम्भ होता है।" फ्लीट के विश्वासानुसार', यह प्रभिलेख खारवेल द्वारा जैनधर्म के उत्कर्ष के लिए की गई प्रवृत्तियों के वर्णन का नहीं है परन्तु इसमें उस सम्राट के अपने 37 वर्ष अर्थात् उसके राज्यकाल के 13वें वर्ष तक का इतिवृत्ति और उसी में उसकी विविध प्रवृत्तियों का उल्लेख किया गया है।
उस शिलालेख का जैना भी वह है, मनुसरण करते हुए हम देखते हैं कि उसकी जिसमें अर्ध मगधी और जैन प्राकृत के भी छींटे हैं। यह शिलालेख खारवेल के राज्य के गया था । उसके राज्यकाल का यह तेरहवां वर्ष उसके जीवन के सैंतीसवें वर्ष के अनुरूप है क्योंकि पन्द्रह वर्ष का होने पर खारवेल युवराज हुआ था और उसका वेदोक्तविधि से महाराज्याभिषेक 24वां वर्ष समाप्त होते ही हुआ था । खारवेल का यह श्रभिषेक बताता है कि जैनधर्म ने सनातन शैली की राष्ट्रीय प्रथानों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया था । "
सारवेल और उसके राजनयिक जीवन की प्रमुख घटनाओं की सूचना ठीक ठीक देने के प्रतिरिक्त इस शिला लेख से हमें इस महान सम्राट की तिथि के प्राय ठीक ठीक निर्णय का भी प्राधार प्राप्त हो जाता है। इस शिलालेख के सिवा और कोई भी ऐतिहासिक या अनैतिहासिक मूल्य का साधन हमें प्राप्त नहीं है कि जो भारतवर्ष के इतिहास के इस कालक्रम पर इतना अच्छा प्रकाश डाल सकता है ।
जैसा कि नीचे दिए टिप्पण से ज्ञात होगा, अभी अभी तक फ्लीट और अन्य विद्वानों के विपक्ष में कुछ
भाषा अपभ्रंश प्राकृत है तेरहवें वर्ष में खुदवाया
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1. migeft, at. g. 47 1 2. बिउप्रा पत्रिका सं. 3, पृ. 488 । 3. नमो अहंतानं नमो सवसिथानं... आदि 4. राएसो पत्रिका, 1910 825 पृ. 1 5. बिउप्रा, पत्रिका, सं. 3, पृ. 431, 438 ।
6. इस टिप्पण में प्राय: कालक्रमानुसार उन विद्वानों के नाम दिए गए हैं कि जिनने इस शिलालेख को एक या दूसरी दृष्टि से विचार किया है। श्री ए. स्टलिंग ने इसकी सर्व प्रथम खोज की थी और कर्नल मैकेंजी की सहायता से इस दिलचस्प प्रमिलेल की सन् 1820 ई. में छाप ली और उसे बिना अनुवाद या प्रतिलिपि के सन् 1825 में अपने अत्यन्त मूल्यवान लेख 'एन अकाउंट, ज्योग्राफिकल स्टेटिस्टिकल एण्ड हिस्टोरिकल आफ उरीसा प्रापर प्रार कटक' (ग्राकियालोजिकल रिव्यु, भाग 15, पृ. 313 आदि, और फलक) सहित प्रकाशित किया था। फिर जेम्स प्रिन्सेप ने सन् 1837 मे पहली ही वार लेप्टेनेट किट्टो की शुद्ध प्रतिलिपि के प्राधार पर प्रकाशित किया और उसके धनुसार यह लेख ई. पूर्व 200 से पहले का नहीं हो सकता है (बंगाल एशियाटिक सोसाइटी पत्रिका, पुस्त. 6, पु. 1075 यादि एवं फलक 58
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वही सं. 4, पृ 397, और सं. 13, पृ. 222 1
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