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हैं। परवर्ती शैशुनागों, नन्दों और मौयों के काल में जैनधर्म नि:संदेह मगध में अत्यन्त प्रभावशाली रहा था। यह बात कि चन्द्रगुप्त ने एक ब्राह्मण विद्वान की युक्ति से राज्य पाया था, इस धारण से कदापि असंगत नहीं है कि जैनधर्म तब राजधर्म था। जैनगहस्थानुष्ठानों में ब्राह्मणों से काम लेते हैं, यह एक सामान्य प्रथा ही है और मुद्राराक्षस नाटक में जिसको हमने ऊपर उद्धृत किया है, मंत्री राक्षस का विशिष्ट मित्र एक जैन साधू ही बताया गया है, जिसने कि पहले नन्द की और बाद में चन्द्रगुप्त की मंत्री रूप से सेवा बजाई थी।
यदि यह तथ्य कि चन्द्रगुप्त जैन था अथवा जैन हो गया था, एक बार स्वीकृत हो जाता है तो उसके राज्य त्यागने एवम् अन्त में जैनधर्म मान्य संलेखना व्रत द्वारा मृत्यु का पाव्हान करने की दन्तकया भी सहज विश्वासनीय हो जाती है। यह बात तो निश्चित है कि ई. पूर्व 322 अथवा उसकी प्रासपास चन्द्रगुप्त गद्दी पर जब आया था तब वह एक दम युवान और अनुभवहीन था। 24 वर्ष पश्चात् जब उसके राज्यकाल का अन्त हुअा, तब वह 50 वर्ष से कम ही आयु का होना चाहिए। राज्यत्याग सिवा इतनी कम आयु में उससे दूर भाग जाने का और कोई भी कारण समझ में नहीं पाते है। राजवंशियों के ऐसे संसार त्याग के अनेक दृष्टांत उपस्थि वर्ष का दुष्काल भी स्वीकृत किया जाता है। संक्षेप में जैन दन्तकथा जहां एक ओर स्वस्थान की रक्षा करती है, वहां दूसरा और कोई भी विकल्प हमारे सामने नही है ।
इन दोनों विद्वानों के सिवा भी और विद्वान हैं जो इसी प्रकार का समर्थन करते हैं। श्रवणबेल्गोल के जैन शिलालेखों के प्रखर अभ्यासी राइस और नरसिंहाचार भी इसी का समर्थन करते हैं। प्राचीन विद्वानों में श्री एडवर्ड टामस भी कि जिसने ग्रीक साहित्य का इस विषय में विचार किया है इसी को स्वीकार करता हैं । फिर याकोबी कहता है कि "हेमचन्द्राचार्य से ले कर आधुनिक सब विद्वान भद्रबाहु की निर्वाण तिथि वीरात् 170 मानते हैं।"4 अपनी गणना के अनुसार ई. पूर्व 297 के लगभग यह तिथि पड़ती है, महान् प्राचार्य के स्वर्गवास की यह तिथि चन्द्रगुप्त के राज्यकाल ई. पूर्व 321-297 से बराबर मिल जाती है।
जैन साहित्य में इस दन्तकथा के उपरान्त अन्य उल्लेख भी मिलते हैं और वे सब बताते हैं कि चन्द्रगुप्त जैन ही था अथवा बाद में वह जैन हो गया था। परन्तु हमें इस साहित्यिक मीमांसा में उतरने की यहां आवश्यकता
1. स्मिथ, ग्राक्सफर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया, 75-76 । “मैं यह विश्वास करने को तैयार हूं कि...चन्द्रगुप्त ने वास्तव में ही राज्य त्याग दिया था और वह जैन साधू हो गया था।" -स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया
पृ. 154 । हेमचन्द्र कहता है कि चन्द्रगुप्त समाधिमरणं प्राप्य दिवं ययौ... -हेमचन्द्र, वही, श्लो. 444 । 2. राइस ल्यूइस, वही, पृ. 3.9 । "हमारा यह मान लेना इसलिए निराधार नहीं है कि चन्द्रगुप्त धर्म से जैन
था।" -वही पृ. 8 । “उपर्युक्त तथ्यों का निष्पक्ष विचार इस परिणाम पर पहुंचाता है कि जैन दन्तकथा को
खड़ा रहने का कुछ प्राधार अवश्य ही प्राप्त है।" -नरसिंहाचार्य, वही, प्रस्तावना पृ. 42।। 3. "चन्द्रगुप्त जैनसंघ का एक सदस्य था, यह बात जैन लेखक बिलकुल उदासीन भाव से लेते है और इसे बात मानकर उसे सिद्ध करने के तर्कादि में पड़ने की आवश्यकता ही नहीं समझते हैं । ...मैगस्थानीज की साक्षी इसी तरह मान लेती है कि चन्द्रगुप्त श्रमणों की भक्ति और उपदेशों का मानने वाला था न कि ब्राह्मणों के धर्म सिद्धान्त का।" -टामस एडवर्ड, वही, पृ. 23 । यवन वर्णनों में जैनों के उल्लेख के लिए देखो राइस,
त्यूइस, वही, पृ. 8 । 4. याकोबी, कल्पसूत्र, प्रस्तावना, पृ. 13 । दिगम्बरों के अनुसार उनकी मृत्यु वीरात __162 में हुई थी। देखो नरसिंहाचार्य, वही, प्रस्ता. प. 40। 5. देखो राइस, ल्यूइस, वही, पृ, 7; स्थिम, वही, पृ. 206; नरसिंहाचार्य, वही, प्रस्ता. पृ. 41 । 6. देखो याकोबी, परिशिष्टपर्वन्, पृ. 61-62 ।
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