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कलह अन्तत: मगध के लाभ में किसी शैशुनाग के नेतृत्व में समाप्त हो गया था कि जो शिशुनाग या नन्दिवर्धन नाम से प्रख्यात था अथवा उसका पूरा नाम, जैसा कि प्रधान कहता है, नन्दिवर्धन-शिशुनाग था।
शैशुनागों के काल में मगध साम्राज्य के विस्तार व उत्कर्ष का परिचय प्राप्त कर लेने पर हम संक्षेप में उसका जैनधर्म के साथ सम्बन्ध अब देखें। यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि जो भी अब तक कहा गया है और आगे जो कुछ भी कहा जाने वाला है उन राजों और राजवंशों को जहां जनी जैन और जैनधर्म के आश्रयदाता एव सहायक कहते हैं. उन्हें बौद्ध भी अपने और अपने धर्म के लिए वैसे ही मानते हैं । भारतीय इतिहास की इस परिस्थिति के अनेक कारण हैं जिनमें विस्तार से जाना हमारे लिए यावश्यक नहीं है क्योंकि ऐसा कर हम किसी ऐसे मानदण्ड का निर्णय नहीं कर सकते हैं कि हम निश्चित रूप से कह सकें कि अमुख-अमुक राजा बौद्ध धर्म मानता था और अमुक-अमुक जैनधर्म । शिलालेख और अन्य प्रमाणिक ऐतिहासिक अभिलेखों की माक्षी के बिना कोई भी वस्तु ऐतिहासिक तथ्य रूप से प्रस्तुत नहीं की जा सकती हैं और जहां धर्मशास्त्र और साहित्यक एवम् लोकिक दन्तकथाएं ही आधार रूप हैं वहां तो शुद्ध सत्य का पता लगाना थोड़ा भी सहज नहीं हैं !
पहले बिसार अथवा जैनों के श्रेणिक को ही लीजिए। उसके विषय में बौद्धों का चाहे जो भी कहना हो, फिर भी जैनों द्वारा प्रस्तुत प्रमाण उसे महावीर का भक्त सिद्ध करने को पर्याप्त हैं। उनके और उसके उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में जैनों ने इतना अधिक लिखा है कि जैनधर्म के साथ उनका सम्बन्ध बताने के लिए उनके कार्यकाल की बातों के विषय में बहुत कुछ कहना आवश्यक है। उत्तराध्ययनसूत्र कहता है कि एक समय श्रेणिक ने महावीर को यह पूछा कि “यद्यपि आप युवान है, फिर भी आपने दीक्षा ले ली है; जो अवस्था भोग विलास की है उसमें आप श्रमण हो कर कठोर जीवन बिता रहे हैं। हे महान् तपस्वी। मैं इस विषय में आपका स्पष्टीकरण सुनने को उत्सुक हूं।"
यह सुनकर नातपुन ने एक लम्बा स्पष्टीकरण किया और राजा को उसे सुनकर इतना सन्तोष हुआ कि उसने अपने हार्दिक भाव इन शब्दों में व्यक्त किए "आपने मनुष्य जन्म का उत्तमोत्तम उपयोग किया है । आप एक सच्चे जैन बन गए हैं। हे महासंयमी आप मनुष्य मात्र के और अपने स्वजनों के संरक्षक हैं क्योंकि आपने जिनों का सर्वोत्तम मार्ग ग्रहण कर लिया है। आप सब अनाथों के नाथ हैं, हे महा तपस्विन् । मैं आपकी क्षमा का प्रार्थी हं; मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे सत्य मार्ग पर झुकाएं। आपसे यह सब प्रश्न कर मैंने आपके ध्यान में खलल पहंचाया है और मैंने आपको भोग भोगने का आमंत्रण दिया है, इस सब की मैं आपसे क्षमा मांगता हूं. आप मुझे क्षमा करें।""
अन्त में उत्तराध्ययन ठीक ही संवरण करता है कि "जब रायसिंह ने इस प्रकार परम परम भक्ति से उस श्रमणसिंह की स्तुति की और तब से ही वह विशुद्ध चित्त होकर अपने अन्तः पुर की सब रानियों, दाम्दासियों, स्वजनों एवम् सकल कुटुम्बी जनों सहित जैनधर्मानुयायी बन गया था ।"
1. देखो प्रधान, वही, पृ. 217, 220; रायचौधरी, वही, पृ. 1 33-1 34 । 2. देखो प्रधान, वही, पृ. 220; रायचौधरी, वही, पृ. 1 32-133 । 3. याकोबी, सेबुई, पुस्त. 45, पृ. 101 । 4. वही, पृ. 107 ! 5. एवं युरिणत्ताण स रायसीहो अरणगारसीह परमाइ भातिए । उत्तराध्ययनरण अध्या. 20, गाथा 58 देखो
याकोबी, वही और वही स्थान ।
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