________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तुलसी शब्द-कोश
649
प्रोतमु : प्रीतम+कए । अनन्य प्रियतम । 'हृदउ न बिदरेउ न पंक जिमि बिछुरत
पीतमु नीरु ।' मा० २.१४६ प्रीता : वि० (सं० प्रीत)। प्रिय । 'हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।' मा० ५.४०.७ प्रीति, ती : सं०स्त्री० (सं० प्रीति)। (१) तृप्ति, तुष्टि । 'कहउँ प्रतीति प्रीती _रुचि मन की।' मा० १.२३.३ (२) मंत्री। 'सीता देइ करहु पुनि प्रोति ।' मा० ६.६.१० (३) प्रेम । 'प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी ।' मा० १.६.५ (४) वर्णमैत्री जो अर्थ में विशेषता लाती है (वर्ण वक्रोक्ति) । 'बरनत बरन
प्रीति बिलगाती।' मा० १.२०.४ (यहाँ प्रेम अर्थ भी है।) प्रीती : प्रीति से, प्रेमपूर्वक । मिले जनक दसरथ अति प्रीतीं।' मा० १.३२०.१ प्रीते : पिरीते । प्रसन्न, सन्तुष्ट, प्रेमयुक्त । 'गुर पद कमल पलोटत प्रीते।' मा०
१.२२६.५ प्रेत : सं०० (सं०) । मरने और पुनर्जन्म के मध्य का जीव जो सूक्ष्म शरीर में
रहता है । मा० १.८५.६ प्रेतपावक : शीतकाल की रातों में गीली मिट्टी वाले स्थानों पर गाँव से कुछ दूर
एक प्रकार का प्रकाश चलता-फिरता दिखता है। ऐसा लगता है कि किसी ने अलाव जलाया है । जाड़े का पथिक उसे पाना चाहता है तो वह या तो लप्त हो जाता है, या दूर भागता है। उसे आधुनिक अवधी में 'अगिया बैताल' कहते हैं । लोग उसे भूत समझकर डर जाते हैं । वह मिले तो कहा जाता है,
भूत पटक देता है । 'उभय प्रकार प्रेमपावक ज्यों धन दुखप्रद ।' विन० १६६.५ प्रेम, मा : सं०० (सं.)। (१) लगाव, आसक्ति । 'पूछ सों प्रेम बिरोध सींग
सों।' कृ० ४६ (२) स्नेह, प्रीति । 'प्रेम पीन पन छीजै।' कृ० ४५ (३) प्रेम और प्रेमा में भक्ति दर्शन के अनुसार अन्तर है-प्रेम में अपने को आलम्बन से तृप्ति मिलती है जबकि प्रेमा वह दशा है जब प्रेमालम्बन को तृप्ति देकर स्वयं तृप्ति पायी जाती है। प्रेमा=प्रियता=प्रिय भावना-प्रेमा वह अनन्य
भावना है जो प्रिय के साथ एकाकार कर देती है । दे० प्रेमा ।। प्रेमपथ : सं०० (सं०) । प्रेम के एकाङ्गी रूप के पालन का सिद्धान्त । 'मौंगी रहि,
समुझि प्रेमपथ न्यारो।' गी० २.६६ ५ प्रेममय : वि० (सं०) । (१) प्रेमरूपी । 'परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही ।' मा०
१.२३५.३ (२) प्रेमपूर्ण । 'पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई ।' मा० २.६७.७ प्रेमरस : (१) प्रेम की वह परिणति जो सदैव आनन्दलीन रखे। वही काव्यरस
भी बनता है तो-दास्य, वात्सल्य, सख्य, माधुर्य तथा शम भागों में विभक्त होकर भक्ति रस कहलाता है । बल्लभाचार्य ने इसे स्नेह रस नाम दिया है।
For Private and Personal Use Only