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तुलसी शब्द-कोश
१.११०.८ (५) अभिनय, लीला-नाट्य । 'करउँ सकल रघुनायक लीला ।' मा० ७.११०.४ (६) लीलरस की अनुभूति । 'सोउ जाने कर फल यह लीला।"
मा० ७.२२.५ लीलातनु : यों तो सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म की लीला है उसी का रूपावतरण है, परन्तु
इस लीला का कोई वाह्य प्रयोजन नहीं-ली लाया एव प्रयोजनत्वात्-परन्तु जब ब्रह्म धर्म के उद्धार हेतु विशेष रूप ग्रहण करता है तब वह सप्रयोजन अवतार होता है और उस अवतारी रूप को 'लीलातनु' कहा जाता है । 'भगत हेतु लीला-तनु गहई।' मा० १.१४४.७ वही रूप भक्तों का उपास्य भी
होता है। लीलारस : बल्लभाचार्य ने 'भक्तिरस' को 'लीलारस' नाम दिया है। शान्त भक्त
भगवान् के स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं (लीला का नहीं) जबकि दास, सखा, वत्सल तथा मधुर भक्त लीलाओं का आनन्द लेते हैं - यही लीलारस है। इन में दासभक्त लीला-सहयोगी न होकर द्रष्टा मात्र रहते हैं जबकि शेष लीला
सहयोगी रहते हैं । 'बालकेलि लीला-रस ब्रज जन हितकारी।' कृ० १ लीलावतार : परमेश्वर का सष्टि रूप में अवतरण लीलावतार से भिन्न है।
उपासना हेतु मुख्यत: पांच रूप माने गये हैं - (१) अर्चावतार=मति आदि में देवता की प्राणप्रतिष्ठा (२) ब्यूहावतार = वासुदेव, सकर्षण, द्युम्न ओर अनिरुद्ध का चतुर्व्यह; अथवा राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का चव्ह । (३) विभवावतार भगवान् के विविध अवतार (दस या चौबीस या अन्य अंशावतार) । (४) सूक्ष्म = उक्त सभी में अनुस्यूत परमात्मा । (५) प्रत्यक् = अन्तर्यामी = तुरीय। इनमें व्यूह और विभव को 'लीलावतार' भी कहते हैं । कभी-कभी सम्पूर्ण सष्टि को लीलावतार कहा जाता है--दे० लीलातनु-परन्तु भू-भार हरण हेतु अवतार को विशेषत: 'लीलावतार' कहा
जाता है। लीलावतारी : वि.पु. (सं० लीलावतारिन् ) । लीलावतार लेने वाला, लीलातनु
ग्रहण करने वाला । विन० ३८.१; ४३.१ लीलि : पूकृ० (सं० निगीर्य>प्रा० निइलिअ->अ. नीलि) । निगल (कर) । तिन
की मति लोभ लालची लीलि लई है। विन० १३६.२ लीलिबे : भकृ०० । निगलने । 'लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है।' कवि०
लीले : भूक०० ब० । निगल लिये । 'सिंह के सिसु मेंढ़क लीले ।' विन० ३२.२ लुकाइ, ई : पूकृ० । छिपकर । मा० ६.२३ क । 'प्रभु देखें तरु ओट लुकाई ।' मा०
३.१०.१३
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