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तुलसी शब्द-कोश
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हिन्याच्छ : सं०पुं० (सं० हिरण्याक्ष) । दैत्यविशेष जो हिरण्यकशिपु का भाई और
प्रह्लाद का पितव्य था । मा० ६.४८ हिलि : पूकृ० (सं० हिलित्वा-हिल भावकरणे>प्रा. हिलिअ>अ0 हिलि) ।
हिल कर, कम्प (सात्त्विकभाव) अनुभव कर, प्रेभाई होकर । 'बार-वार हिलि
मिलि दुहुँ भाई।' मा० २.३२०.५ हिलोरि, री : हलोरि । तरङ्गित करके । गी० १.१०५.४ हिलोरे : हलोरे । तरङ्ग । 'राम प्रेम बिनु नेम जाय जैसे मगजल जलधि हिलोरे ।'
विन० १६४.३ हिसिषा : सं० । प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, होड़, यह भावना कि दूसरे की अच्छाई का
अधिकार अपने को मिल जाय (आधुनिक अवधी में हिसका') । अरवी हस्क' दूसरे का भेद खोलने का अर्थ देता है और 'हस्साक' रहस्य खोलने वाले को कहा जाता है । इस प्रकार गुप्त रूप से दूसरे की बराबरी करने की प्रवृत्ति 'हिसका' है । 'जों अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान .“जीव कि ईस
समान ।' १.६६ हिहिनात : वकृ०० । हि-हि (अश्व ध्वनि) करते। हींसते । 'हर हाँके फिरि
दखिन दिसि हेरि हेरि हिहिनात ।' रा०प्र० २.३.४ हिहिनाहि, हीं : आप्रब० । हिनहिनाते हैं, हींसते हैं । मा० २.६६ देखि दखिन
दिसि हय हिहिनाहीं।' मा० २.१४२.८ ही : हिं। (१) में, से । कोतकहीं गिरि गेह सिधाए।' मा० १.६६ (२) निश्च
यार्थक--'त्यों हीं।' कवि० ७.१०२ 'अब हीं।' मा० २.३४.७ (३) आख्या
तविभक्ति- 'खाहीं।' मा० १.६६.६ हो : (१) हिय । हृदय । 'हरषे हेतु हेरि हर ही को।' मा० १.१६.७ (२) ह+
स्त्री० । घातक, नाशक ! 'हास त्रय-तास ही।' गी० ७.६.४ (३) /ह+ भूकृ०स्त्री० । थी। 'हमहं कछुक लखी ही तब की औरेबै नंदलला की।' कृ० ४३ (४) हि (निश्चय) । 'खेलत ही देखौं निज आँगन ।' कृ० ५ (५) हि
(विभक्ति) । को । 'हृदय जानि निज नाथही ।' गी० ७.६.२ हीचे : आ.प्रए० (सं० ह्रीच्छति-हीच्छलज्जायाम>प्रा. हिच्छइ) । संकुचित
(लज्जित) होता होती है। हिचकता-ती है। 'कहत सारदहु कर मति हीचे ।' __ मा० २.२८३.४ हीतल : सं० पु. (सं० हृत्तल)। हृदयतल, कलेजा। 'तनु पूजि भी हीतल
सीतलताई ।' कवि० ७.५८ होन : वि०० (सं०) । (१) रहित, शून्य । 'सकल कामना हीन ।' मा० १२२
(२) नीच, क्षुद्र । 'जाति हीन ।' मा० ३.३६
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