Book Title: Tulsi Shabda Kosh Part 02
Author(s): Bacchulal Avasthi
Publisher: Books and Books

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Page 605
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1150 तुलसी शब्द-कोश हूहा, हा : सं०पु० (सं० अव्यय-ह)। अभिमान, तिरस्कार आदि को सूचक शब्द । 'धाए कपि करि हूह ।' मा० ६.६६ ‘सुनि कपि भालु चले करि हूहा।' मा० ६.१.१० हृद : सं०० (सं० १-हृद् २-हृद)। हृदयरूपी सरोवर । 'संकर हृद पुंडरीक .."हरि चंचरीक ।' गी० ७.३.६ हृदउ : हृदय+कए । 'दलकि उठेउ सुनि हृदउ कठोरू ।' मा० २.२७.४ हृदय : (१) हृदय में। 'अति अभिमान हृदयं तब आवा।' मा० १.६०.७ (२) हृदय से । 'भेंट हृदयं लगाइ।' मा० ७.५ हृदय : सं.पु. (सं.)। (१) अन्तःकरण । 'हृदय सिंधु मति सीप समाना।' मा० १.११.८ (२) वक्ष । 'हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं।' मा० १.५५.६ हृदयनिकेत : सं०+वि० पु० (सं०) । मनोभव (मन में रहने वाला) । कामदेव । मा० १.८६ हृदये : (सं०) हृदय में । मा० ५ श्लोक २ हृदयेस, सा : विल (सं० हृदयेश) । अन्तःकरण का स्वामी =अन्तर्यामी प्रेरक । मा० ७.१११.३ हृदि : हृदये (सं.) । हृदय में । 'हृदि बसि राम काम मद गंजन ।' मा० ७.३४.८ हुदै : हृदय । विन० ८८.४ हृषीकेस : संपु. (सं० हृषीकेश-हृषीका=इन्द्रिय) । इन्द्रियों का स्वामी या प्रेरक =परमेश्वर । 'हृषीकेस सुनि नाउँ जाउँ बलि अति भरोस जिय मोरे । तुल सिदास इंद्रिय संभव दुख हरे बनिहिं प्रभु तोरे ।' विन० ११६.५ हृष्ट : वि० (सं.)। प्रसन्न । हृष्टपुष्ट : प्रसन्न तथा स्वस्थ । मा० १.१४५.८ हे : (१) अव्यय (सं०) । सम्बोधन । 'हे खग मृग हे मधुकर स्रनी।' मा० ३.३०.६ (२) /ह+भूक०पु०ब० । थे । 'हे हम समाचार सब पाए।' कृ० ५० हेठ : (१) सं००+वि० (सं० अधः--हेठ>प्रा० हेट्ठ) । नीचा । (२) क्रि०वि० । नीचे । 'ऊपर आपु हेठ भट ।' मा० ६.४१ हेत, ता : हेतु । 'जग माहीं विचरत एहि हेता।' वैरा०६ हेति : (हा+इति) 'हा' शब्द । 'हाहा हेति पुकारि ।' मा० ६.७० हेतु, तू : सं०पु० (सं० हेतु) (१) कारण । 'राम जन्म कर हेतु ।' १.१५२ (२) प्रयोजन, साध्य । 'दूसर हेतु तात कछु नाहीं।' मा० २.७५.३ (३) के लिए । 'सवन्हि बनाए मंगल हेतू ।' मा० ७.६.२ (४) हित । प्रेम । 'देखि भरत पर हेतु ।' मा० २.२३२ (५) बीज (बीजमन्त्र) । 'बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।' मा० १.१६.१ र=अग्निबीज; For Private and Personal Use Only

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